प्रार्थना और ध्यान
-श्री मां का संदेश
वर्ष १९४१ - १९४८ के दौरान
मूल फ्रेंच से अंग्रेजी में अनुवादित पुस्तक के लिए अंग्रेजी में लिखी गई प्रस्तावना |
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
कुछ लोग भगवान्को अपना अंतरात्मा प्रदान करते हैं और कुछ लोग अपना जीवन, कुछ लोग अपना कर्म निवेदित करते हैं और कुछ लोग अपना धन । बहुत थोड़ेसे लोग संपूर्ण अपने आपको और अपना सब कुछ —अपना अंतरात्मा, जीवन, कर्म और धन— समर्पित करते हैं| ये ही भगवान्के सच्चे संतान हैं । कुछ दूसरे लोग कुछ भी नहीं देते। इनका चाहे जो भी स्थान, सामर्थ्य और धन क्यों न हो, ये भगवान्के उद्देश्यकी दृष्टिसे मूल्यहीन शून्य हैं ।
यह पुस्तक उन्हीं लोगोंके लिये लिखी गयी है जो भगवान्के प्रति संपूर्ण आत्मनिवेदन करनेकी अभीप्सा करते हैं ।
- श्री मां
१९४१ - १९४८
वर्ष: १९१२
२ नवम्बर १९१२
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Voice by: Debalina Roy
हे परम स्वामी ! तू ही सब चीजोंका जीवन है, तू ही सव- की ज्योति है और तू ही सर्वव्यापी प्रेम है । यद्यपि मेरा सारा अस्तित्व सिद्धांत रूप में तुझे समर्पित है फिर भी मैं इस समर्पणका प्रयोग छोटी-बड़ी चीजोंमें मुश्किलसे कर पाती हूं। मुझे यह जाननेमें कई सप्ताह लग गये हैं कि इस लिखित ध्यानका उद्देश्य, इसकी सार्थकता, वास्तवमें इसे प्रतिदिन तेरे सम्मुख रखने में ही है । इस प्रकार तेरे साथ जो मेरी अनेक वार बातचीत होती है उसके कुछ अंशको मैं प्रतिदिन स्थूल रूप दे पाऊंगी। मैं तेरे सामने अपना भाव यथाशक्ति पूरी तरह निवेदित करूंगी; इसलिये नहीं कि मैं समझती हूं कि में तुझे कुछ बता सकती हूं—तू तो स्वयं सब कुछ है—वल्कि इसलिये कि संभवतः हमारा समझने तथा अनुभव करनेका ढंग तेरे ढंगसे भिन्न है, या यह कह सकते हैं कि तेरी प्रकृतिसे उलटा है। फिर भी तेरी ओर अभिमुख होकर, तेरे प्रकाशमें स्नान करते हुए इन वस्तुओंको देख पाऊंगी तो वे क्रमागत अपने सच्चे स्वरूप में दिखायी देंगी । फिर एक दिन तेरे साथ तादात्म्य हो जानेके कारण मुझे तुझसे कुछ कहने को नहीं होगा, क्योंकि में "तू" हो जाऊंगी। यही है वह उद्देश्य जिसे में प्राप्त करना चाहती हूं, इसी विजयको ओर मेरे सब प्रयत्न अधि- काधिक मुड़ रहे हैं। मैं उस दिनके लिये अभीप्सा करती हूं जव कि मैं "मैं" न कह पाऊंगी क्योंकि तब मैं "तू" हो जाऊंगी।
अब भी दिनमें कितनी हो वार में ऐसे कर्म करती हूं जो " तुझे" समर्पित नहीं होते । परिणाममें में एक विचित्र-सी विकलता महसूस करती हूं जो शारीरिक अनुभवमें हृदयको पोड़ाके रूपमें प्रकट होती है । तब में अपना कर्म अपनेसे अलग करके देखती हूं और वह मुझे हास्यास्पद, तुच्छ तथा दोपयुक्त प्रतीत होता है । मैं उसके लिये खेद अनुभव करती हूं, एक क्षणके लिये मुझे दुःख होता है, वास्तवमें तबतक जबतक कि मैं बालवत् विश्वास- के साथ तुझमें प्रवेश नहीं करती, तुझमें अपने-आपको खो नहीं देती और तुझसे प्रेरणा और आवश्यक शक्ति पानेके लिये प्रतीक्षा नहीं करने लग जातो, ताकि जो भूल मुझमें है तथा मेरे परिपार्श्वमें है—और यह सब एक ही है―ठीक न हो जाय, कारण, अब तो मुझे लगातार और सुनिश्चित रूपमें एक वैश्व एकताका अनुभव होता है जो सब कर्मोकी पारस्परिक निर्भरताको निर्धारित करती है ।
३ नवम्बर १९१२
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Voice by: Debalina Roy
..... तेरा प्रकाश मेरे अंदर एक जीवनदायी अग्निशिखाके समान उपस्थित है और तेरा दिव्य प्रेम मेरे अंदर प्रवेश कर रहा है । मेरी समस्त सत्ता इस बात के लिये अभीप्सा करती कि तू इस शरीर में, उस शरीरमें जो तेरा आज्ञाकारी यंत्र (करण) और विश्वस्त सेवक बनना चाहता है—एकछत्र राज्य करे ।
१९ नवम्बर १९१२
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Voice by: Debalina Roy
कल मैंने उस अंग्रेज युवकसे, जो तुझे इतनी सच्ची लगनसे खोज रहा है, कहा था कि मैने निश्चित रूपमें तुझे पा लिया है और तेरे साथ मेरा एकत्व निरंतर बना रहता है। वास्तवमें, जहांतक मैं सचेतन हूँ, अवस्था ऐसी ही है। मेरे सब विचार तेरो ओर जा रहे हैं, मेरे समस्त कार्य तुझे समर्पित हैं; तेरी उपस्थिति मेरे लिये एक सुनिचित, अपरिवर्तनशील और स्थायी वस्तु है और तेरी शांति मेरे हृदयमें सर्वदा निवास करती है। फिर भी में जानती हूं कि मिलनकी यह अवस्था उस अवस्थाकी तुलनामें, जिसे मेरे लिये कल चरितार्थ करना संभव होगा, तुच्छ और अनिश्चित है । में यह भी जानती हूं कि वह 'एकात्मता', जिसमें में अपन 'मैं' के विचारसे पूर्णतया मुक्त हो जाऊंगी, अभी दूर, निःसंदेह बड़ी दूर है पर यह 'में' जिसे मैं अपने आपको अभिव्यक्त करनेके लिये अभीतक प्रयोग में लाती है, प्रत्येक बार बाधा साबित होता है मानों यह व्यंजनीय भावके लिये अनुपयुक्त शब्द है । मुझे ऐसा लगता है कि मानवीय संभाषणकी आवश्यकता- की दृष्टिसे यह अनिवार्य है, पर सब कुछ निर्भर इसपर करेगा कि इस 'मैं' से क्या अभिव्यक्त होता है, और अब भी कितनी वार जब कि मैं इसका उच्चारण करती हूं तब तू ही मेरे अंदरसे बोलता है, क्योंकि में पृथक्त्वको भावना ही खो चुकी हु |
पर यह सब अभी भ्रूण अवस्थामें हैं और उत्तरोत्तर ही पूर्णताको प्राप्त होगा । तेरी सर्वशक्तिमत्तानें अचल विश्वास हमें कितना शांतिप्रद ढाढ़स देता है !
तू ही सब कुछ है, सब जगह है, और सबमें है । यह शरीर जो कर्म करता है तेरा अपना शरीर है, जैसे कि यह संपूर्ण दृश्य जगत् भी तेरा है । वह तू ही है जो इस शरीरमें श्वास लेता, चितन करता और प्रेम करता है । यह स्वयं 'तू' होते हुए तेरा आज्ञाकारी सेवक बननेको अभिलाषा रखता है ।
२६ नवम्बर १९१२
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Voice by: Debalina Roy
हर क्षण हो, तेरे प्रति कैसी कृतज्ञताका गीत गानेकी इच्छा करती है ! तू मेरे चारों ओर सभी जगह सभी वस्तुओंमें अपने आपको प्रकाशित कर रहा है। मेरे अंदर तेरी चेतना और इच्छा अधिकाधिक स्पष्ट रूपमें प्रकट हो रही है, यहांतक कि 'मैं' और 'मेरे' का यह स्थूल भ्रम भी लगभग पूरी तरह लुप्त हो गया है । यदि अब भी तुझे अभिव्यक्त करनेवाले महत् प्रकाशमें कुछ परछाइयां, कुछ दोष दिखायी पड़ रहे हैं तो वे तेरे अनुपम प्रेमके अद्भुत प्रकाशमें अधिक देरतक कैसे टिक सकेंगे ? आज प्रातः मुझे, तू जो मेरी इस सत्ताको रूप दे रहा है उसका दर्शन प्राप्त हुआ और उसे प्रधानतः एक बृहत् नियमित ज्यामितिक आकारोंमें कटे हुए होरेको उपमा दी जा सकती है। वह रूप दृढ़ता, सुघड़ता, शुद्ध स्वच्छता, पारदर्शकता होरेके समान ही था, परंतु अपने प्रगाढ़ तथा प्रगतिशील जीवन-तत्त्वमें वह एक प्रदीप्त तथा ज्वलंत दोपशिखा था । वस्तुतः वह इस सबसे अधिक तथा श्रेष्ठ था क्योंकि वह वाह्य तथा आंतरिक संवेदनोंसे परेका अनुभव था और यह रूपक केवल तभी और उसी मात्रामें मनके सामने प्रकट हुआ जब कि मैं बाह्य जगत्से सजग संबंधमें आयो ।
तू ही अनुभवको सृजनशील बनाता है, तू हो जीवनको प्रगतिशील बनाता है और तू ही अपने प्रकाशद्वारा अंधकारको एक क्षणमें छिन्न-भिन्न कर देता है, तू ही तो है जो प्रेमको उसका समस्त वल प्रदान करता है और तू ही जड़तत्त्वमें यह अद्भुत और उत्कट अभीप्सा तथा नित्यताके लिये यह पवित्र पिपासा जाग्रत करता |
"तू" हो सर्वत्र और सर्वदा है । तुझे छोड़ और कुछ भी नहीं ...... इस साररूप सत्तामें तथा संपूर्ण अभिव्यक्तिमें । ओ अंधकार, ओ भ्रम दूर हटो। ओ दुःख-कष्ट, तुम लुप्त हो जाओ ।
परम प्रभु, क्या तुम यहां उपस्थित नहीं हो !
२८ नवम्बर १९१२
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Voice by: Debalina Roy
क्या यह वाह्य जीवन, प्रतिदिन और प्रतिक्षणका कर्म, चिंतन और ध्यानके समयका अनिवार्य पूरक नहीं है ? फिर क्या जो समय एकमें अथवा दूसरेमें लगता है उनका आपसी अनुपात तैयारी तथा उपलब्धिके प्रयासोंके अनुपातका ठीक प्रतिरूप नहीं है ? वस्तुतः ध्यान, धारणा, भागवत मिलन उपलब्ध परिणाम है, खिला हुआ फूल है । इसके विपरीत दैनिक कर्म-व्यवहार अहरन है, जिसपर सब तत्त्वोंको आना पड़ता है ताकि वे नरम, शुद्ध और सुसंस्कृत होकर ध्यानके दिये हुए प्रकाशको धारण करनेके लिये परिपक्व हो जायं । परंतु जबतक बाह्य कर्म सर्वागीण विकासके लिये अनावश्यक नहीं हो जाता, यह जरूरी है कि ये सब तत्त्व वारी वारीसे इस प्रकार तपती कड़ाहीमेंसे गुजरा करें । उस समय यह कर्म-व्यवहार तुझे अभिव्यक्त करनेका साधन बन जायगा जिसका उद्देश्य होगा चेतनाके दूसरे केंद्रोंको गलाने और उद्भासित करनेके द्विविध कार्यके लिये जागृत करना — तभी तो अभिमान और अहंतुष्टि सबसे भयंकर विघ्न हैं । वहुत हो बिनीत भावमें हमें सब छोटे-छोटे अवसरोंका लाभ उठाना चाहिये और इन अनगिनत अंगोंमेंसे कुछको गूंघकर शुद्ध करना चाहिये, उन्हें नमनीय और निर्वैयक्तिक बनाना चाहिये तथा उन्हें स्वविस्मृति, त्याग, भक्ति, सद्भाव और कोमलताका पाठ पढ़ाना चाहिये । और जब ये गुण सामान्य अभ्यास वन जायंगे तब ये अंग चितनमें सम्मिलित होनेके लिये तथा परा एकाग्रतामें तेरे साथ एकात्म होनेके लिये तैयार हो जायेंगे । मैं समझती हूं, इसी कारण यह कार्य, उच्च कोटिके साधकोंके लिये भी, लंबा और धीमा होना अनिवार्य है तथा आकस्मिक रूपांतर सर्वागीण नहीं हो सकते । ये व्यक्तिके दृष्टिकोणको बदल देते हैं, उसे निश्चित रूपमें सीधे रास्तेपर डाल देते हैं, परंतु लक्ष्यको वास्तविक रूपमें प्राप्त करनेके लिये कोई व्यक्ति इन सब प्रकारके तथा हर क्षणके अनगिनत अनुभवोंको छोड़ नहीं सकता ।
...... हे परम गुरु, तू ही मुझमें तथा सब वस्तुओंमें उद्भासित हो रहा है । ऐसा कर कि तेरा प्रकाश प्रकट हो तथा तेरी शांतिका राज्य सबके लिये स्थापित हो ।
२ दिसम्बर १९१२
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Voice by: Debalina Roy
जबतक हमारी सत्ताका एक भी अंग, हमारे चितनको एक भी किया किसी बाहरी प्रभावके अधीन है, अर्थात् एकमात्र तेरे प्रभावके अधीन नहीं है, तबतक यह नहीं कहा जा सकता कि तेरे साथ हमारा सच्चा एकत्व स्थापित हो गया है; अभीतक हमारी सत्ता व्यवस्था और ज्योतिसे हीन एक विकट सम्मिश्रण है, क्योंकि यह वस्तु, यह गति अपने-आपमें एक जगत् है, यह असंगति और अंधकारका एक जगत् है वैसे ही जैसे कि यह समूची पृथ्वी भौतिक जगत्के अंदर एक जगत् है और यह भौतिक जगत् समग्र विश्वके अंदर .....|
३ दिसम्बर १९१२
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Voice by: Debalina Roy
कल शामको मैंने अनुभव किया कि तेरा पथप्रदर्शन प्राप्त करनेके लिये विश्वासपूर्ण आत्म-समर्पण कितना सफल होता है । जब किसी बातको जानना आवश्यक होता है तब मनुष्य उसे जान ही लेता है और उस समय मन जितना तेरे प्रकाशके प्रति निष्क्रिय हो उतने ही अधिक पर्याप्त और स्पष्ट रूपमें तेरा प्रकाश व्यक्त होता है ।
मैने तुझे अपने अंदर बोलते हुए सुना तो मेरी इच्छा हुई कि जो कुछ ने कहा है उसे लिख लूं जिससे वह सम्यक् सूत्र कहीं खो न जाय — वस्तुतः जो तूने कहा था उसे मैं अब शायद ही दुहरा सकूं। पर मैंने अनुभव किया कि यह सुरक्षित रखनेकी चिता भी तेरे प्रति विश्वासकी अपमानजनक कमीको द्योतक है। मुझे जो कुछ बनना चाहिये वह तू मुझे, जहांतक मेरा आंतरिक भाव तुझे मुझपर तथा मेरे अंदर कार्य करनेकी अनुमति देता है, निश्चय ही बना सकता है । तेरी सर्वशक्तिमत्ता असोम है । यह जानने योग्य है कि जो तुझे सब जगह और सब चीजोंमें 'देखना जानते हैं उनके लिये प्रति क्षण जो होना चाहिये वह यथासंभव पूर्णताके साथ होता जा रहा है। अब और भय नहीं, विकलता नहीं, क्षोभ नहीं; है केवल पूर्ण आत्मप्रसाद, अखंड विश्वास, परम अचल शांति !
५ दिसम्बर १९१२
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Voice by: Debalina Roy
शांति और निश्चल-नीरताके अंदर ही शाश्वत प्रभु आत्म- प्रकाश करते है; किसी भी बात से अपने आपको उद्विग्न मत होने दो और तुम देखोगे कि शाश्वत प्रभु अभिव्यक्त होंगे; सब अव- स्याओं में पूर्ण समत्व बनाये रखो और शाश्वत प्रभु विद्यमान होंगे ....। हां, तुझे खोजने के लिये न तो हमें बहुत अधिक उत्कण्ठा होनी चाहिये और न बहुत अधिक प्रयास ही करना चाहिये, यह उत्कण्ठा और यह प्रयास तुझे ढकनेवाले पर्देका काम करते हैं; तेरे दर्शनको भी इच्छा नहीं करनी चाहिये, यह भी एक प्रकारको मानसिक चंचलता है जो तेरी शाश्वत उपस्थितिको धुंधला वना देती है । केवल पूर्णतम शांति, आत्मप्रसाद और समताके अंदर ही सब कुछ 'तू' हो जाता है जैसे कि तू 'सब कुछ' है ही, और इस पूर्ण शुद्ध और शांत वातावरणमें यदि तनिक भी कंपन हो तो वह तेरे आत्मप्रकाशमें बाधा पहुंचाता है । जरा भी जल्दबाजी नहीं होनी चाहिये, जरा भी अशांति नहीं, जरा भी खींचतान नहीं, तू और केवल तू हो अपेक्षित हो, बिना किसी विश्लेषण या विषयीकरणके, और तब तू वहां, बिना किसी संभवनीय संदेहके उपस्थित हो जाता है क्योंकि तब सब कुछ पावन शांति और पवित्र नीरवतामें परिणत हो जाता है ।
यह अवस्था सब ध्यानोंसे श्रेष्ठ होती है |
७ दिसम्बर १९१२
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Voice by: Debalina Roy
शांत भावसे जलनेवाली दीपशिखाकी भांति, बिना हिले-जुले सीधे ऊपरकी ओर उठनेवाले सुगंधित धूम्प्रकी भांति मेरा प्रेम तेरी ओर प्रवाहित हो रहा है; और एक बच्चेकी भांति, जो न तो तर्क-वितर्क करता है और न किसी तरह की चिंता ही करता है, में पूर्ण रूपसे तेरे ऊपर निर्भर करती हूं जिससे तेरी इच्छा पूर्ण हो, तेरी ज्योति प्रकट हो, तेरी शांति चारों ओर विकीर्ण हो . और तेरा प्रेम सारे जगत्को आच्छादित कर दे । जब तू चाहेगा तभी मैं तुझे प्राप्त करूंगी, तेरे साथ एक हो जाऊंगी, बिना किसी भेदभावके 'तू' ही बन जाऊंगी। और में बिना किसी प्रकारको अधीरताके उस शुभ घड़ीकी प्रतीक्षा करती हूं तथा अबाध रूपसे अपने आपको उसकी ओर प्रवाहित होने देती हूं जैसे कोई शांत जलधारा असीम समुद्रकी ओर बढ़ती हो ।
तेरी शांति मेरे अंदर वर्तमान है और उस शांति में मैं 'शाश्वत'की स्थिरताके साथ केवल तुझे ही सब वस्तुओं में उपस्थित देखती हूं |
१० दिसम्बर १९१२
इस प्रार्थना | यहां सुनें |
Voice by: Debalina Roy
परम स्वामी, सनातन गुरु, तेरे पथप्रदर्शनमें पूर्ण विश्वास होनेकी अद्वितीय सफलताका पुष्टिप्रद अनुभव फिर मुझे मिला । कल मेरे मुखसे तेरा प्रकाश —- मेरे अंदर बिना किसी प्रतिरोधके — व्यक्त हुआ; यह यंत्र (करण) अनुगत, नमनीय तथा तीक्ष्ण था ।
सब वस्तुओंमें, सब प्राणियोंमें कर्ता तू ही है और जो तेरे इतना समीप है कि वह सब क्रियाओं में बिना अपवादके तुझे देख सकता है, वह प्रत्येक कर्मको आशीर्वादमें बदलना जानता है ।
सदा तुझमें ही निवास करना, बस यही महत्त्वपूर्ण है, तुझमें ही सदा और उत्तरोत्तर अधिकाधिक, मानसिक भ्रमों और इंद्रियजन्य मायाजालसे बाहर, परंतु कर्मेसि विरक्त होकर नहीं, उनसे मुंह मोड़कर तथा उन्हें त्यागकर नहीं - - यह संघर्ष तो व्यर्थ तथा हानिकारक है —— वल्कि हर कर्म, जो भी हो वह, सदा-सर्वदा तुझमें ही निवास करते हुए करना । तब भ्रम दूर हो जाते हैं, इंद्रियजन्य मायाजाल खंडित हो जाते हैं, कर्मबंधन टूट जाते हैं और सब कुछ रूपांतरित हो जाता है तेरी सनातन सत्ताको ओजपूर्ण अभिव्यक्तिमें |
बस, ऐसा ही हो ।
११ दिसम्बर १९१२
इस प्रार्थना | यहां सुनें |
Voice by: Debalina Roy
..... बिना अधीर और अशांत हुए मैं प्रतीक्षा करती हूं कि एक नया आवरण दूर हो जाय और तेरे साथ मिलन पूर्णतर । मैं जानती हूं कि यह आवरण छोटी-छोटी त्रुटियों तथा अनगिनत मोह- बंधनोंके एक पूरे समूहसे बना हुआ है। ...... यह समूह कैसे दूर होगा ? धीरे-धीरे अनगिनत छोटे-छोटे प्रयासोंसे तथा ऐसी सजगतासे जो कभी क्षण भरके लिये भी नहीं चूकती, या यह दूर होगा कभी एकाएक हो तेरे सर्वशक्तिमान् प्रेमके एक बृहत् प्रकाशसे । पर मैं नहीं जानती और न मैं इसके विषयमें कोई प्रश्न ही करती हूँ। मैं शक्तिभर सजग रहते हुए प्रतीक्षा करती हूँ । मुझे निश्चय है कि केवल तेरी इच्छा ही सत् है, एकमात्र ही कर्त्ता है और मैं हूं केवल एक यंत्र (करण); और यह यंत्र (करण) जब पूर्णतर अभिव्यक्ति के लिये तैयार हो जायगा तब अभिव्यक्ति स्वभावतः हो घटित होगी ।
इस समय भी आवरणके पीछेसे आनंदकी एक मौन स्वर-लहरी सुनायी पड़ रही है, जो तेरे ओजस्वी अस्तित्वका परिचय दे रही है।
वर्ष: १९१३
५ फरवरी १९१३
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
तेरी ध्वनि मेरे हृदयकी नीरवतामें एक मधुर संगीतके समान सुनायी देती है और मेरे मस्तिष्कमें कुछ अपूर्ण शब्दोंके रूपमें अनूदित होती है जो अपूर्ण होते हुए भी तेरे भावसे भरपूर है । ये शब्द पृथ्वोको संबोधित करके कहते है : ओ गरीब दुखिया धरती, याद रख मैं तेरे अंदर बैठा हैं, आशा न छोड़; तेरा प्रत्येक प्रयत्न, प्रत्येक दुःख, प्रत्येक हर्ष और प्रत्येक शोक, तेरे हृदयकी प्रत्येक याचना, तेरो आत्माको प्रत्येक अभीप्सा, तेरी ऋतुओंका प्रत्येक पुनरावर्तन, सभी बिना अपवादके, जो सभी तुझे बुरा लगता है या भला, जो तुझे असुन्दर प्रतीत होता है या सुन्दर, सभी तुझे अचूक रूपसे मेरी ओर लाते हैं । मैं वह शांति हूं जिसकी सीमा नहीं, वह प्रकाश हूं जिसमें अंधकार नहीं, में पूर्ण समस्वरता, निश्चयात्मक भाव, विश्राम और परम आशीर्वाद हूं ।
सुनो धरती, उठती हुई इस पवित्र ध्वनिको सुनो।
सुनो और फिरसे साहस करो ।
८ फरवरी १९१३
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Voice by: Debalina Roy
हे नाथ ! तू ही मेरा आश्रय और मेरा कल्याण है, तू ही मेरी शक्ति, मेरा स्वास्थ्य, मेरी आशा और मेरा साहस है । परम शांति, अमिश्रित आनंद और पूर्ण आत्मप्रसाद है । मेरी सारी सत्ता अनंत कृतज्ञता तथा अविच्छिन्न श्रद्धा-भक्तिके साथ तेरे चरणोंमें लोट रही है; और यह श्रद्धा-भक्ति मेरे हृदय और मनसे उठकर तेरी ओर वैसे ही जा रही है जैसे भारतके सुगंधित द्रव्योंका पवित्र धुआं ऊपरकी ओर उठता है ।
हे प्रभु! ऐसी कृपा कर कि में मनुष्योंके बीच तेरी अग्रदूत चन सकूं जिससे कि ये सब लोग जो तैयार हैं, उस परम आनंदका आस्वाद पा सकें जिसे तू अपनी असीम करुणावश मुझे प्रदान कर रहा है, तथा ऐसी कृपा कर कि इस पृथ्वीपर तेरी शांतिका राज्य स्थापित हो ।
१० फरवरी १९१३
इस प्रार्थना | यहां सुनें |
Voice by: Debalina Roy
हे भगवान्, कृतज्ञतामें मेरी सत्तामात्र तुझे "धन्य धन्य” कहती है । इसलिये नहीं कि तू अपने-आपको अभिव्यक्त करनेके लिये इस दुर्बल तथा अपूर्ण शरीरको उपयोगमें ला रहा है बल्कि इसलिये कि "तू अपने-आपको अभिव्यक्त तो कर रहा है", और यह, वास्तव में वैभवोंका वैभव है, आनंदोंका आनंद और आश्चर्योंका आश्चर्य है । तेरे सब उत्कट जिज्ञासुओंको यह पता होना चाहिये कि जहां तेरे प्रकट होनेको आवश्यकता होती है वहां तू प्रकट हो जाता है । यदि वे इस चरम श्रद्धामें तुझे ढूंढ़नेकी अपेक्षा हर क्षण अपने-आपको समग्र रूपमें तेरी सेवामें अर्पण करके प्रतीक्षा करना अंगीकार करें तो, निश्चय ही, जव आवश्यकता होगी तू प्रकट हो जायगा । और, वास्तवमें, अभिव्यक्तिके रूप चाहे कितने भी विभिन्न तथा प्रायः अप्रत्याशित क्यों न हों, क्या हमेशा ही तेरे अभिव्यक्त होनेको आवश्यकता नहीं है !
प्रभु, तेरी महिमा उद्घोषित हो, मानव-जीवन उससे पवित्र वने,
हमारे हृदय रूपांतरित हों,
और सारी धरतीपर तेरी शांतिका राज्य हो ।
१२ फरवरी १९१३
इस प्रार्थना | यहां सुनें |
Voice by: Debalina Roy
ज्योंही किसी अभिव्यक्तिमेंसे प्रयत्नमात्रका लोप हो जाता है त्योंही वह एक अत्यंत सरल क्रिया वन जाती है, वैसे ही सरल जैसे कि एक फूल, बिना किसी कोलाहल और आवेगके, सहज ही खिलता है तथा अपने सौंदर्यको व्यक्त करता और अपनी सुगंधि फैलाता है । इसी सरलतामें अधिकतम बलका निवास होता है, कम-से-कम मिलावट होती है और इसकी क्रिया कम-से-कम हानिकारक होती है । प्राणशक्तिका विश्वास नहीं करना चाहिये, यह कर्म-मार्गमें प्रलोभक है । इसके जाल में फंसने का डर सदा ही रहता है, क्योंकि इसमें तुरत परिणाम पानेका आवेग होता है। अच्छे ढंगसे कार्य करनेके प्रथम उत्साहमें हम इसे प्रयोगमें लानेके लिये बलात् आकर्षित हो जाते हैं । परंतु शीघ्र ही यह कर्मको विपथ पर डाल देती है, और फिर जो कुछ हम करते हैं उसमें यह भ्रांति और मृत्युका वीज समाविष्ट कर देती है ।
सरलता, सरलता ! तेरी उपस्थितिकी पवित्रता कितनी मधुर है ..... ।
११ मई १९१३
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
जैसे ही सांसारिक दायित्व खत्म हो जाते हैं वैसे ही इन सब चीजोंसे संबंध रखनेवाले विचार मुझसे कोसों दूर भाग जाते हैं और में अपने-आपको एकमात्र और पूर्ण रूपमें तेरे ही चितन तथा तेरी ही सेवामें तल्लीन पाती हूं। और तब पूर्ण शांति और निस्तब्धताके अंदर मैं अपनी इच्छाको तेरो इच्छाके साथ एक कर देती हूं और उसे सर्वागपूर्ण निश्चल-नीरवताके भीतर मैं तेरे सत्यको प्रकट करनेवाली वाणी सुनती हूं ।
तेरी दिव्य इच्छासे सज्ञान होने तथा तेरी इच्छाके साथ अपनी इच्छाको एकाकार कर देनेसे ही सच्ची स्वतंत्रता और
सर्वशक्तिमत्ताका रहस्य, शक्तियोंको पुनः जागरित करने और सत्ताको रूपांतरित करनेका रहस्य ज्ञात होता है ।
तेरे साथ निरंतर सर्वागीण रूपसे सम्मत होना ही इस बातका अटल निश्चय है कि सारी बाधाएं पार हो जायंगी और बाहरी और भीतरी सभी कठिनाइयोंपर विजय प्राप्त होगी ।
गाओ, गाओ, देशो, जातियो, मनुष्यो, गाओ,
भागवत सामंजस्य उपस्थित है !
१८ जून १९१३
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
तेरे अभिमुख होना, तुझसे एकत्व प्राप्त करना, तुझमें तेरे लिये ही जीना, यह है परम आनंद, विशुद्ध प्रसन्नता और विकाररहित शांति। यह है 'अनंत' में श्वास लेना, नित्यतामें उड़ना और अपनी सीमाओंसे मुक्त हो जाना, देश और कालसे परे पहुंच जाना । क्यों मनुष्य इस सौभाग्य से ऐसे भागते हैं मानों उन्हें इससे डर लगता हो ? यह अविद्या भी कैसी विचित्र वस्तु है ? यही अविद्या सब दुःखोंका कारण है ! कितना दुःख है ! यही अज्ञान मनुष्योंको उससे दूर रखता है जो उनका परम सौभाग्यदाता है तथा निरे संघर्ष और दुःखसे बने इस सामान्य जीवनको दुःखमय नियममें जकड़े रखता है ।
२१ जुलाई १९१३
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
...... परंतु कितना धैर्य चाहिये ! उन्नति तो दिखायीतक नहीं देती ! ..... अहा ! किस प्रकार अपने हृदयकी गहराईसे मैं तुझे पुकारती हूं हे सच्चा प्रकाश, महत्तर प्रेम, दिव्य गुरु ! तू ही तो हमें जीवन प्रदान करता और प्रकाश देता है, तू ही हमें मार्ग दिखाता और हमारी रक्षा करता है। तू ही हमारी आत्माकी आत्मा है, हमारे जीवनका जीवन है तथा हमारे अस्तित्वका आधारभूत 'कारण' है । तू परम ज्ञान है, निर्विकार शांति है !
२८ नवम्बर १९१३
इस प्रार्थना | यहां सुनें |
Voice by: Debalina Roy
हे हमारी सत्ताके स्वामी, प्रभातकालीन एकाग्र ध्यानकी इस शांतिमें, अन्य किसी भी समयकी अपेक्षा अधिक अच्छी तरह, मेरे विचार उत्सुक प्रार्थनाके रूपमें तेरी ओर उठते हैं ।
मैं प्रार्थना करती हूं कि यह दिन जो शुरू होनेवाला है पृथ्वी तथा मनुष्योंके लिये थोड़ा और पवित्र प्रकाश तथा सच्ची शांति लाये; तेरी अभिव्यक्ति अधिक पूर्ण हो सके तथा तेरा मधुर विधान अधिक स्वीकृत; कोई वस्तु अधिक उच्च, अधिक उदात्त, अधिक सत्य, मानवजातिपर प्रकट हो; अधिक विस्तृत तथा अधिक गंभीर प्रेम फैले जिससे कि दुःखदायी व्रण भर जायं; तथा सूर्यकी जो यह प्रथम किरण फूटने जा रही है वह आनंद और सामंजस्यकी घोषणा करे तथा उस ओजस्वी तेजपुंजकी संज्ञा बने जो कि जीवनके सारतत्त्वमें प्रच्छन्न है ।
हे दिव्य स्वामी, प्रदान कर कि यह दिन हमारे लिये तेरे विधानके प्रति अधिक पूर्ण आत्मनिवेदनका, तेरे कर्मके प्रति अधिक सर्वागीण समर्पणका, अधिक समग्र निज-विस्मृतिका, अधिक विशाल प्रकाशका तथा अधिक पवित्र प्रेमका अवसर बने; और यह भी प्रदान कर कि तेरे साथ अधिकाधिक गंभीर और अटूट अंतमिलनद्वारा हम उत्तरोत्तर अधिक अच्छी तरह तेरे योग्य सेवक बननेके लिये अपने-आपको तेरे साथ एकीभूत करें | हमसे समग्र अहंता, तुच्छ अभिमान, सारा लोभ और सारा अंधकार दूर कर ताकि तेरे दिव्य प्रेमसे पूर्णतया प्रज्वलित होकर संसारमें हम तेरी दीपिकाएं बनें ।
पूर्वके सुवासित घूपके सफेद धुएं के समान मेरे हृदयसे एक मौन गीत उठता है ।
और पूर्ण समर्पणके प्रशांत भावमें इस दिनोदयके समय में तुझे नमस्कार करती हूं ।
वर्ष: १९१४
२४ जनवरी १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
हे प्रभु, हमारी सत्ताके एकमात्र तत्त्व, प्रेमके अधीश्वर, जीवनके उद्धारक, हर क्षण तथा हर वस्तुमें मैं केवल तुझे ही अनुभव करूं ।
जब मैं ऐकांतिक रूपमें तेरे हो साथ निवास नहीं करती, तव में मार्मिक वेदना महसूस करती हूं, मैं धीरे-धीरे बुझने लगती हूं, क्योंकि तू ही मेरे अस्तित्वका एकमात्र कारण है, एकमात्र उद्देश्य है, एकमात्र आधार है । मैं एक ऐसे भीरु पक्षीके समान हूं जिसे अपने पंखोंपर अभी भरोसा नहीं और जो उड़नेमें संकोच करता है। तू मुझे बल दे कि में तेरे साथ निश्चयात्मक तादात्म्य प्राप्त करनेके लिये उड़ान भर सकूं।
वर्ष: १९१४
१ फरवरी १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
मैं तेरी ओर मुड़ती हूं । तू सर्वत्र विद्यमान है, सबके अंदर और सबके बाहर है, तू सबका मूलतत्त्व है और सबसे
अलग, समस्त शक्तियोंका घनीभूत केंद्र है, चेतन व्यक्तित्वोंका सिरजनहार है |
मैं तेरी ओर मुड़ती हूं और तुझ जगत्के उद्धारकको नमस्कार करती हूं और तेरे दिव्य प्रेमके साथ एक होकर में पृथ्वी और उसके प्राणियोंपर दृष्टिपात करती हूं, इस स्थूल पुंजके विषयमें सोचती हूं जो नित्य नष्ट होनेवाले और पुनः वननेवाले रूप धारण करता है, उन समूहों को देखती हूं जो बननेके साथ ही नष्ट हो जाते हैं, उन प्राणियोंके विषयमें सोचती हूं जो अपने-आपको चेतन और स्थायी व्यक्तित्व समझते हैं पर जो एक निःश्वासके समान पलभरमै नष्ट हो जानेवाले हैं, जो अपनी विभिन्नता में भी परस्पर समान और प्रायः एकरूप होते हैं, जो उन्हीं इच्छाओंको, उन्हीं प्रवृत्तियोंको, उसी तृष्णाको, उन्हीं अज्ञानमयी भ्रांतियोंको दुहराते रहते हैं।
किंतु, समय-समयपर तेरा उत्कृष्ट प्रकाश किसी प्राणीमें जगमगा उठता है और उसके द्वारा संसारभरमें विकीर्ण हो जाता है, और तब थोड़ी-सी बुद्धिमत्ता, थोड़ासा ज्ञान, थोड़ीसी निःस्वार्थ निष्ठा, वीरता और करुणा हृदयोंमें प्रवेश करती है, मस्तिष्कोंको रूपांतरित कर देती है और जीवनके उस दुःखप्रद और कठोर चक्रसे जिसके उनके अंध अज्ञानने उन्हें अधीन कर रखा है –- कुछ थोडेसे तत्त्वोंका उद्धार कर देती है ।
परंतु नागरिक जीवन और तथाकथित सभ्यताने मनुष्यको जिस भयंकर मतिभ्रम में डुबा रखा है उसमेंसे निकालनेके लिये अतीतके सारे ऐश्वर्यसे अधिक उत्तुंग ऐश्वर्य, आश्चर्यजनक प्रताप और ज्योतिको आवश्यकता होगी । इनकी इन सब इच्छाओंको उस कटु संघर्षसे हटानेके लिये, जो ये स्वार्थमयी, तुच्छ और मूर्खतापूर्ण संतुष्टिके लिये कर रही हैं, इस भंवरसे इन्हें छुड़ाने के लिये जो अपनी कपटपूर्ण चमक-दमक के पीछे मृत्युको छिपाये रहता है और तेरी सामंजस्यपूर्ण विजयकी ओर इन्हें अभिमुख करनेके लिये कितनी दुर्दात, साथ ही कितनी दिव्य रूपसे मधुर शक्तिको आवश्यकता पड़ेगी !
हे प्रभु, सनातन गुरु, हमें प्रकाश दिखा, हमारा पथ-प्रदर्शन कर अपने विधानकी प्राप्तिका, अपने कार्यकी पूर्णताका हमें मार्ग दिखा |
मैं मौन भावमें तेरी पूजा करती हूं और पावन एकाग्रतामें तेरी बात सुनती हूं ।
१४ फरवरी १९१४
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शांति समस्त पृथ्वीपर शांति....।
हे भगवान् ! ऐसी कृपा कर कि सब लोग साधारण चेतनाते बाहर निकलकर, सांसारिक वस्तुओंको आसक्तिसे मुक्त होकर तेरी दिव्य उपस्थिति ज्ञानमें जागृत हों, तेरी परम चेतनाके साथ अपनी चेतनाको युक्त करें और इससे प्राप्त होनेवाली शांतिके प्राचुर्यका आस्वादन करें ।
हे प्रभु! तू हीं हमारी सत्ताका परम स्वामी हैं, तेरा विधान ही हमारा विधान है; हम अपनी सारी शक्तिके साथ यह अभीप्सा करते हैं कि हमारी चेतना तेरी शाश्वत चेतनाके साथ तादात्म्य प्राप्त करे जिससे सर्वत्र और सदा हम तेरा ही महान् कार्य संपन्न कर सकें ।
हे नाथ ! हमें सामान्य आवश्यकताओंकी चिंतासे मुक्त कर, साधारण स्थूल दृष्टिसे मुक्त कर, ऐसी कृपा कर कि अब हम केवल तेरी ही आंखोंसे देखें और केवल तेरी ही इच्छासे कार्य करें; हमें अपने दिव्य प्रेमको सजीव ज्योति-शिखाओंमें परिणत
कर ।
आदर के साथ, भक्तिके साथ अपनी समस्त सत्ताको सहर्ष समर्पित करते हुए, हे प्रभु, मैं तेरे विधानकी चरितार्थताके लिये अपने आपको अर्पित करती हूं।
शांति, समस्त पृथ्वीपर शांति......।
१५ फरवरी १९१४
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हे प्रभु, एकमात्र सद्वस्तु, प्रकाशके भी प्रकाश, जीवनके भी जीवन, जगतके रक्षक, सर्वोच्च प्रेम, ऐसी कृपा कर कि हम अधिकाधिक तेरी सतत उपस्थितिकी चेतनाके प्रति पूर्णतया जाग्रत् हो जायं, जिससे कि हमारे सब कर्म तेरे विधानके अनुकूल बन जायं और हमारी इच्छा और तेरो इच्छामें कोई भेद न रहे । हम अपने-आपको भ्रांतिमय चेतनासे, (काल्पनिक) संसारसे अलग कर लें और फिर अपनी चेतनाको पूर्ण चेतनाके साथ, जो कि तू है, एक कर दें ।
लक्ष्यपर पहुंचनेके हमारे संकल्पमें हमें स्थिरता प्रदान कर, हमें दृढ़ता, शक्ति और ऐसा साहस प्रदान कर जो जड़ता और शिथिलताको दूर भगा दे |
हे प्रभु, मैं तुझसे प्रार्थना करती हूं, ऐसी कृपा कर कि मेरी समस्त सत्ता तेरे साथ एक हो जाय, और में प्रेमकी एक मशालके अतिरिक्त और कुछ न रहूं, ऐसी मशाल जो तेरी परम क्रियाके प्रति पूर्ण रूपसे सचेतन हो ।
७ मार्च १९१४
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'कागामारू' जहाजपर:
कल तू हमारे साथ एक अत्यंत ही अद्भुत रक्षकके रूपमें था; तूने इसकी अनुमति दे दी कि तेरा विधान बाह्यतम अभि- व्यक्तिके क्षेत्रपर्यंत विजय लाभ करे। हिंसाका उत्तर शांतिसे दिया गया और पाशविक क्रूरताका मधुरतासे और जहां एक अटल दुर्भाग्यको प्रतिष्ठित होना था, वहां तेरी शक्ति गौरवान्वित हुई । हे प्रभु, किस उत्साहपूर्ण कृतज्ञताके साथ मैंने तेरी उपस्थितिका अभिवादन किया था। मेरे लिये यह इस बातका एक निश्चित संकेत था कि हम तेरे नाममें और तेरे लिये कार्य करने, सोचने और जोनेकी शक्ति प्राप्त करेंगे, केवल विचार और संकल्पमें ही नहीं, वरन् वास्तविक और पूर्ण उपलब्धिके रूपमें भी ।
आज प्रातः मेरी प्रार्थना सदाकी भांति उसी एक अभीप्लामें तेरी ओर उठ रही है कि हम तेरे हो प्रेममें जियें, तेरे प्रेमको इतने प्रबल वेगसे, इतने सफल और क्रियाशील रूपमें प्रसारित करें कि हमारे संपर्कसे सभी सशक्त, पुनर्जीवित और आलोकित अनुभव करने लगें | रोगियोंको स्वस्थ करने, कष्टोंको दूर करने, शांति और स्थिर विश्वासको उत्पन्न करने, पीड़ाको दूर करने और उसके स्थानपर सच्ची प्रसन्नताके भावको स्थापित करनेकी शक्ति होना। ..... उस प्रसन्नताके भावको जो तेरे अंदर निवास करती है और जो कभी मंद नहीं पड़ती ...... हे प्रभु, अद्भुत मित्र, सर्वशक्तिमान् गुरु, हमारी समस्त सत्तामें प्रवेश कर, और उसे इतना रूपांतरित कर दे कि केवल तू ही हमारे अंदर निवास करे, केवल तू ही हमारे द्वारा अभिव्यक्त हो !
८ मार्च १९१४
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उस शांत सूर्योदयके सामने, जिसने मेरे अंदर सब कुछ शांत और नीरव कर दिया था, उस समय जब कि मैं तेरे प्रति सचेतन हो गयी थी और केवल तू ही मेरे अंदर निवास करता था, हे प्रभु, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मैंने इस जहाजके सभी व्यक्तियोंको अपने अंदर धारण करके एक समान प्रेममें आवेष्टित कर लिया है, इस प्रकार उनमेंसे प्रत्येकके अंदर तेरी चेतनाका कुछ अंश जग जायगा । बहुत कम ही कभी मैंने तेरी दिव्य शक्ति, तेरा अजेय प्रकाश इतनी अच्छी तरह अनुभव किया है; फिरसे एक बार मेरा विश्वास सर्वागीण हो उठा और मेरा आनंदमय समर्पण विशुद्ध बन गया ।
ओ तू, जो सब कष्ट दूर करता है, समस्त अज्ञानको छिन्न- भिन्न कर देता है, तू, जो परम शोकनिवारक है, इस जहाजके उन सब लोगोंके हृदयमें हर समय उपस्थित रह जिन्होंने इसमें आश्रय लिया है, जिससे कि तेरी महिमा एक बार फिर प्रकाशम आ जाय ।
९ मार्च १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
जो लोग तेरे लिये और तुझमें ही जीवन धारण करते हैं, वे भौतिक परिस्थितियां, जलवायु, अभ्यास, परिपार्श्व आदि बदल जानेपर भी सर्वत्र एक ही वातावरण पाते हैं, वही वे अपने अंदर बनाये रखते हैं, अपने विचारोंको सदा तुझमें संयुक्त करके उसी वातावरणको लिये रहते हैं। सभी जगह वे अपना घर अनुभव करते हैं, अर्थात् तेरा घर अनुभव करते हैं। उन्हें नयी वस्तुओं और नये देशोंके अदृष्टपूर्व तथा वैचित्र्यपूर्ण रूपोंमें कुछ आश्चर्य अनुभव नहीं होता । उन्हें प्रत्येक वस्तुमें तेरी ही उपस्थिति प्रत्यक्ष रूपमें अनुभव होती है और तेरा शाश्वत वैभव जो उन्हें सदा अनुभव होता रहता है, रेतके छोटेसे कणमें भी दिखायी पड़ता है । समस्त पृथ्वी तेरा स्तुतिगान करती है; अंधकार, दुःख और अज्ञानके होते हुए भी, इन सबके बीच में भी, हम तेरे प्रेमका गौरव अनुभव कर सकते और इसके साथ सदा तथा सर्वत्र आंतरिक संबंध जोड़ सकते हैं ।
प्रभु, मेरे मधुर स्वामी, यह सब में लगातार ही इस जहाजपर अनुभव कर रही हूं जो मुझे एक अद्भुत शांतिका धाम प्रतीत होता है, ऐसा मंदिर प्रतीत होता है जो तेरी शोभाके लिये निष्क्रिय अवचेतनाकी लहरोंपर तैर रहा है, जिस अवचेतनाको हमें जीतना है तथा तेरी दिव्य उपस्थितिके प्रति जाग्रत करना है।
वह दिन कितना धन्य था जब मैंने तुझे जाना, ओ अकथनीय सनातन प्रभु ! वह दिन, और दिनोंसे कितना अधिक धन्य होगा जब पृथ्वी अंतमें चेतन होकर तुझे जान लेगी और केवल तेरे लिये हीउ जीवन धारण करेगी !
२५ मार्च १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
बिलकुल सदाकी भांति, अदृष्ट और नीरव रूपमें किंतु सर्वशक्तिमत्ता के साथ तेरा कार्य संपन्न हुआ और उन आत्माओंमें जो बंद प्रतीत होती थीं तेरी दिव्य ज्योतिका अनुभव जाग उठा है । मैं जानती थी कि तेरी उपस्थिति के लिये आवाहन करना कभी निरर्थक नहीं जाता, और यदि अपने हृदयकी सच्चाईसे हम किसी भी शरीरद्वारा, वैयक्तिक शरीर अथवा मानवीय सामूहिक सत्ता द्वारा, तेरे साथ संपर्क स्थापित करें तो उस शरीरको अवचेतना.--- अज्ञानके रहते भी — पूर्णतया रूपांतरित हो जाती है। किंतु जब यह रूपांतर एक या अनेक तत्त्वोंमें सचेतन हो जाता है, जब राखके नीचे सुलगती हुई वह चिनगारी एकदम धधक उठती हैं और समस्त सत्ताको आलोकित कर देती है तब तेरे सर्वोच्च कार्यके आगे नतमस्तक होनेमें हमें प्रसन्नता अनुभव होती है, तेरी अजेय शक्ति एक बार फिर प्रमाणित हो जाती है और हम साधिकार प्रतीक्षा करने लगते हैं कि मनुष्यजातिमें सच्चे सुखको एक नयी भवितव्यता और जुड़ गयी है ।
प्रभु, मेरी तीव्र कृतज्ञता तेरी ओर उठ रही है जिसमें दुःखी मानवजातिकी कृतज्ञता भी शामिल है जिसे तू आलोकित, रूपांतरित और गौरवान्वित करता है, गौरव तथा ज्ञानकी शांति प्रदान करता है ।
१० अप्रैल १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
अकस्मात् पर्दा फट गया और क्षितिज अनावृत हो गया । स्पष्ट दृष्टिके सामने मेरी सारी सत्ता कृतज्ञताके एक महान् प्रवेगके साथ तेरे चरणोंमें लोट गयी। और इस गंभीर तथा सर्वांगपूर्ण हर्ष के होते हुए भी शाश्वतताकी इस शांति के कारण सब कुछ स्थिर और शांत था । अब मुझे ऐसा लगता है कि मैं किसी - सीमासे बंधी नहीं हूं; अब मुझे अपने शरीरका भान नहीं है, न
इंद्रियानुभवों, न हृद्गत भावों और न विचारोंका ही ....। बस रह गयी है एक विशालता, उज्ज्वल, निर्मल और प्रशांत, प्रेम और ज्योतिसे सराबोर, अनिर्वचनीय आनंदसे परिपूर्ण; और मुझे ऐसा लगता है कि यह वास्तव में मेरीही सत्ता है; तथा मेरी यह सत्ता पहलेकी मेरी अहंकारपूर्ण और सीमित सत्तासे इतनी थोड़ी मिलती-जुलती है कि अब, हे प्रभु, हमारे परम भाग्य विधाता, मैं नहीं कह सकती कि आया यह मैं हूँ या तू ।
ऐसा मालूम होता है मानो सब कुछ शक्ति, साहस, सामर्थ्य, संकल्प, अनंत मधुरिमा, अतुलनीय करुणा हो .....|
पिछले दिनोंकी अपेक्षा और भी अधिक जोरसे यह महसूस होता है कि समस्त भूतकाल भर गया है, मानो नये जीवनको किरणोंके नीचे वह ढक गया हो। इस कापीके कुछ पृष्ठोंको दुवारा पढ़ते हुए मैंने अतीतकी ओर जो अंतिम दृष्टि दौड़ायी उसने मुझे पूरी तरहसे इस मृत्युके बारेमें विश्वास दिला दिया है, और, एक भारी बोझसे मुक्त होकर ही, हे मेरे मालिक, में एक शिशुकी पूरी सरलताके साथ पूरी नग्नताके साथ तेरे सामने उपस्थित हो रही हूँ। ....| और हमेशा ही में जिस एकमात्र वस्तुका अनुभव कर रही हूं वह यही विशुद्ध और शांत विशालता है। ....| हे नाथ ! तूने मेरी प्रार्थना सुन ली है और मैंने जो कुछ मांगा है उसे तूने मुझे दे दिया है: मेरा 'मैं' विलुप्त हो गया है और अव केवल रह गया है वह अनुगत यंत्र (करण) जो तेरी सेवामें लगा हुआ है, तेरी अनंत और शाश्वत फिरणोंके एकत्र होने और अभिव्यक्त होनेका केंद्र है। तूने मेरे जीवनको ले लिया है और उसे अपना बना लिया है, तूने मेरी संकल्प-शक्ति ले ली है और उसे अपनी संकल्प शक्तिके साथ युक्त कर दिया है, तूने मेरे प्रेमको ले लिया है और उसे अपने प्रेमके साथ एकाकार बना दिया है, तूने मेरी चितन-शक्तिको ले लिया है और उसके स्थानमें अपनी अखंड चेतना प्रतिष्ठित कर दी है।
शरीर आश्चर्यचकित होकर मौन और विनम्र पूजा-भावके साथ अपना मस्तक मिट्टीमें झुका रहा है । और अन्य कोई वस्तु नहीं है, बस तू ही अपनी अक्षय शांतिकी महामहिमाके साथ- विराजमान है।
१७ अप्रैल १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
पांडिचेरी:
हे नाथ ! हे सर्वशक्तिमान् प्रभु ! एकमात्र सद्वस्तु ! ऐसा वर दे कि कोई भूल-भ्रांति, कोई अंधकार, कोई सांघातिक अज्ञान मेरे हृदय और मेरे विचारमें न घुस आये ....|
कर्ममें, व्यक्तित्व ही तेरे संकल्प और तेरी शक्तियोंका अनिचार्य और अपरिहार्य माध्यम है। यह व्यक्तित्व जितना ही अधिक सबल, बहुमुखी, सामर्थ्यशाली, व्यष्टिभावापन्न और सचेतन होता है उतनी ही अधिक शक्तिशालिता और उपयोगिताके साथ यंत्र (करण)का व्यवहार भी किया जा सकता है। परंतु, स्वयं अपने स्वभावके कारण हीउ व्यक्तित्व बड़ी आसानीसे अपने पृथक् अस्तित्वके घातक भ्रममें जा पड़ता है और धीरे-धीरे तेरे तथा जिसपर तू कार्य करना चाहता है उसके वीचका एक पर्दा वन जाता है, और, एकदम आरंभमें आविर्भाव होनेके समय नहीं, बल्कि वापत जानेके पथमें पर्दा वन जाता है; अर्थात्, एक विश्वासपात्र सेवककी नाई, जो कुछ तेरा प्राप्य है उसे ठीक-ठीक तुझे लौटा देनेवाला अर्थात् तेरे कार्यके अनुपात में प्रयुक्त शक्तियोंको लौटा देनेवाला एक मध्यस्य न बन उन शक्तियोंके कुछ अंशको, स्वयं अपने लिये बचा रखनेकी प्रवृत्ति व्यक्तित्वमें होती है और वह यह सोचता है: "आखिर मैंने हो तो यह या वह कार्य किया है, और इसके लिये तो लोग मेरी प्रशंसा कर रहे हैं.....।" हे घातक माया, अंधकारमय मिथ्यापन, अब तुम पकड़में आ गये हो, तुम्हारा पर्दाफाश हो गया है। यह रहा वह दुष्कर्मी कीट जो कर्मफलको चाट जाता है, उसके सभी परिणामोंको व्यर्थ बना देता है ।
हे नाथ ! हे मेरे मधुर स्वामी ! हे अद्वितीय सद्वस्तु ! 'मैं' पनके इस बोधको दूर कर दे । अब में समझ गयी हूं कि जबतक कोई अभिव्यक्तं विश्व रहेगा तबतक तेरे आविर्भाव के लिये इस 'मैं' की भी आवश्यकता रहेगी; 'मैं' को मिटा देना या यहांतक कि उसे घटा देना या उसे कमजोर बना देना भी तुम्हें तुम्हारे आविर्भावके साधनसे, पूर्णतः या अंशतः, वंचित कर देना है। परंतु जिस चीजको पूरी तरह जड़से उखाड़ फेंकना होगा वह चीज है यह मायामय विचार, यह भ्रमपूर्ण अनुभव, यह भ्रांतिपूर्ण बोध कि मैं एक पृथक् सत्ता हूं। किसी मुहूर्तमें, किसी अवस्थामें हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि तेरे बाहर इस 'मैं' की कोई सत्ता नहीं है ।
हे मेरे परमप्रिय स्वामी ! हे मेरे भगवान् ! मेरे हृदयसे इस मायाको दूर कर दे ताकि यह सेविका, शुद्ध पवित्र बन जाय और जो कुछ तेरा प्राप्य है उसे वह सच्चाईके साथ, संपूर्ण रूपमें तुझे अर्पण कर दे | नीरव होकर मैं इस महान् अज्ञानको देख और समझ सकूं और उसे हमेशा के लिये नष्ट कर दूं । इस हृदयसे अंधकारको हटा दे और तेरी ज्योति एक सर्व-स्वतंत्र साम्राज्ञीके रूपमें यहां राज्य करे ।
१२ मई १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
मुझे अधिकाधिक ऐसा लगता है कि हम क्रियाशीलता के उन कालों में से एक
में हैं जिनमें अतीत के प्रयासों का फल प्रकट हो जाता है, – एक ऐसे काल में जब हम विधान के बारे में सचेतन होने का अवकाश पाये बिना ही तेरे विधान के अनुसार उस परिमाण में काम करते हैं जिसमें वह हमारी सत्ता का एकाधिपति नियन्ता है ।
आज सवेरे एक द्रुत अनुभूति में से गहराई से गहराई में गुजरते हुए, मैं हमेशा की तरह, फिर एक बार अपनी चेतना को तेरी चेतना के साथ तदात्म कर पायी और तब तेरे सिवाय और कहीं भी जीवन-यापन नहीं कर रही थी - वस्तुतः केवल तू ही जी रहा था लेकिन तुरंत ही तेरी इच्छा ने मेरी चेतना को बाहर की ओर खींच लिया, उस काम की ओर जो किया जाना है और तू ने मुझसे कहा, "वह यंत्र (करण) बन जिसकी मुझे जरूरत है।" और क्या यह अंतिम त्याग नहीं है ? तेरे साथ तादात्म्य को त्यागना, तेरे और अपने बीच विभेद न करने के मधुर और पवित्र आनंद को त्यागना, हर क्षण यह जानने के आनंद को त्यागना, केवल बुद्धि से नहीं बल्कि सर्वांगीण अनुभूति से कि तू ही एकमात्र सद्वस्तु है और बाकी सब केवल आभास और भ्रांति है ? इसमें कोई संदेह नहीं कि बाहरी सत्ता को आज्ञाकारी यंत्र (करण) होना चाहिये जिसे उस इच्छा के बारे में सचेतन होने की भी जरूरत नहीं जो उसे चलाती है; लेकिन मुझे हमेशा लगभग पूरी तरह उस यंत्र (करण) के साथ तदात्म होने की क्या जरूरत है और 'अहं' तेरे अंदर पूरी तरह विलीन क्यों न हो जाये और तेरी पूर्ण और निरपेक्ष चेतना क्यों न जिये ?
मैं पूछती तो हूं पर मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है। मैं जानती हूं कि सब कुछ तेरी इच्छा के अनुसार है और शुद्ध पूजा-भाव से मैं अपने-आपको तेरी इच्छा के आगे खुशी के साथ समर्पित करती हूं। हे प्रभो, तू मुझे जो बनाना चाहेगा वही बनूंगी, चाहे सचेतन हो या निश्चेतन, इस शरीर की तरह सीधा-सा यंत्र (करण) या तेरी तरह परम ज्ञान। ओह कैसा मधुर और शांत होता है वह आनंद जब हम कह सकें, "सब कुछ अच्छा है” और उन सब तत्त्वों के द्वारा, जो अपने-आपको उस संचार के लिये अर्पण करें, जगत् में तुझे कार्य करते हुए अनुभव कर सकें।
तू सबका एकाधिपति स्वामी है, तू ही अगम्य, अज्ञेय, शाश्वत और उदात्त सदवस्तु है ।
हे अद्भुत ऐक्य, मैं तेरे अंदर लुप्त हो रही हूं।
२१ मई १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
हे प्रभो, अचल आनंद, समस्त अभिव्यक्ति के परे, शाश्वत की निर्विकार नीरवता में मैं तेरे अंदर हूं। जो तेरी शक्ति और अद्भुत ज्योति में से भौतिक पदार्थ के अणुओं को केंद्र और वास्तविकता बनाता है उसमें मैं तुझे पाती हूं; इस तरह तेरी उपस्थिति के बाहर गये बिना मैं तेरी परम चेतना में लुप्त हो सकती हूं या तुझे अपनी सत्ता के प्रदीप्त कणों में देख सकती हूं। और अभी के लिये यही तेरे जीवन की प्रचुरता और तेरा आलोक है ।
मैं तुझे देखती हूं, मैं स्वयं तू हूं और इन दो ध्रुवों के बीच मेरा तीव्र प्रेम तेरी ओर अभीप्सा करता है ।
२२ मई १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
जब हम सत्ता की सभी अवस्थाओं में और जीवन के सभी लोकों में क्रमशः यह पहचान लेते हैं कि क्या वास्तविक है और क्या अवास्तविक, जब हम एकमात्र सवस्तु की पूर्ण और सर्वांगीण निश्चिति पर पहुंच जाते हैं तो हमें अपनी दृष्टि इस परम चेतना की ऊंचाइयों से व्यष्टिगत समष्टि की ओर मोड़नी चाहिये जो पृथ्वी पर तेरी अभिव्यक्ति के लिये तात्कालिक यंत्र (करण) का काम देती है और उसके अंदर तेरे, अपने एकमात्र वास्तविक अस्तित्व के सिवा और कुछ न देखना चाहिये । इस तरह इस समष्टि का प्रत्येक अणु तेरे उदात्त प्रभाव को ग्रहण करने के लिये जाग्रत् होगा । अज्ञान और अंधकार न केवल सत्ता की केंद्रीय चेतना से बल्कि उसकी बाह्यतम अभिव्यक्ति की प्रणाली से भी गायब हो जायेंगे । रूपांतर के इस श्रम की पूर्णता और परिपूर्ति से ही तेरी उपस्थिति, तेरे प्रकाश और तेरे प्रेम की प्रचुरता की अभिव्यक्ति हो सकती है।
प्रभो, तू मुझे यह सत्य सदा अधिकाधिक स्पष्ट रूप से समझाता है; मुझे एक- एक कदम करके उस मार्ग पर आगे चला। छोटे-से-छोटे परमाणुतक मेरी सारी सत्ता तेरी उपस्थिति के पूर्ण ज्ञान के लिये और उसके साथ परम एकत्व के लिये अभीप्सा करती है। ऐसी कृपा कर कि सब बाधाएं गायब हो जाएं, अंग-अंग में तेरा दिव्य ज्ञान अज्ञान के अंधेरे का स्थान ले ले। जैसे तूने केंद्रीय चेतना को, सत्ता के अंदर इच्छा को आलोकित किया है, उसी तरह इस बाह्यतम पदार्थ को भी आलोकित कर । ऐसी कृपा कर कि समस्त व्यक्तित्व अपने प्रथम मूल और सार - तत्त्व से लेकर अंतिम प्रक्षेप और अधिकतम जड़-भौतिक शरीरतक, सब तेरी एकमात्र सवस्तु की पूर्ण अभिव्यक्ति और सिद्धि में एक हो जायें ।
विश्व में तेरे जीवन, तेरे प्रकाश, तेरे प्रेम के सिवा कुछ नहीं है ।
ऐसी कृपा कर कि हर चीज तेरे सत्य के ज्ञान द्वारा समुज्ज्वल और रूपांतरित हो जाये ।
तेरा दिव्य प्रेम मेरी सत्ता को परिप्लावित कर रहा है; तेरा परम प्रकाश हर कोषाणु में चमक रहा है; हर चीज उल्लसित हो रही है क्योंकि वह तुझे जानती है और तेरे साथ एक है ।
२६ मई १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
सतह पर तूफान है; समुद्र विक्षुब्ध है, लहरें टकराती हैं और एक-दूसरे पर उछलती हैं और बहुत शोर मचाती हुई टूट पड़ती हैं। लेकिन सारे समय इस उन्मत्त जल के नीचे मुस्कराते हुए विशाल विस्तार शांत और अचंचल रहते हैं । वे सतह की हलचल को एक अनिवार्य क्रिया के रूप में देखते हैं; क्योंकि यदि दिव्य प्रकाश को पूरी तरह अभिव्यक्त करने योग्य बनना है तो जड़ पदार्थ को तेजी से मथना बहुत जरूरी है। व्यथित आभास के पीछे, संघर्ष और संताप के द्वंद्व के पीछे चेतना अपने स्थान पर दृढ़ बनी रहती है और बाहरी सत्ता की सभी गतिविधियों का अवलोकन करती जाती है । वह केवल दिशा और स्थिति को ठीक करने के लिये हस्तक्षेप करती है ताकि लीला बहुत अधिक नाटकीय न हो जाये। यह हस्तक्षेप कभी दृढ़ होता है कभी कठोर, कभी व्यंग्यात्मक होता है तो कभी व्यवस्था के लिये आदेश या विडंबना, वह हमेशा प्रबल, सौम्य, शांत और मुस्कराती हुई शुभेच्छा से भरा होता है |
नीरवता में मैंने तेरे अनंत और शाश्वत आनंद को देखा ।
तब जो अभीतक छाया और संघर्ष में है, उससे तेरी ओर एक मृदु प्रार्थना उठी : हे मधुर स्वामी, हे प्रकाश और शुद्धि के परम दाता, वर दे कि सभी पदार्थ और सभी क्रियाएं तेरे दिव्य प्रेम और तेरी उत्कृष्टतम प्रशांतता की सतत अभिव्यक्ति के सिवा और कुछ न हों .. I
और मेरे हृदय में तेरी उच्चतम भव्यता की प्रसन्नता का ज्ञान है ।
२७ अगस्त १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
हे प्रभो, दिव्य प्रेम, शक्तिशाली प्रेम, अनंत, अथाह प्रेम में, प्रत्येक क्रिया में, सत्ता के सभी लोकों के अंदर रहने के लिये मैं तुझे पुकारती हूं । वर दे कि मैं इस दिव्य प्रेम, शक्तिशाली प्रेम, अनंत, अथाह प्रेम में, प्रत्येक क्रिया में, सत्ता के सभी लोकों में घुल जाऊं ! मुझे उस उबुद्ध वेदी में बदल दे ताकि सारी पृथ्वी का वातावरण उसकी ज्वाला से शुद्ध हो जाये ।
ओह, अनंत रूप से तेरा प्रेम बन जाना .... |
३१ अगस्त १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
इस विकट अव्यवस्था और भयंकर विनाश में एक महान् कार्य देखा जा सकता है, एक आवश्यक परिश्रम जो पृथ्वी को एक नयी बुवाई के लिये तैयार कर रहा है, जो अन्न की अद्भुत बालों में विकसित होगी और जगत् को एक नयी जाति की उत्कृष्ट पैदावार प्रदान करेगी। प्रत्यक्ष दर्शन स्पष्ट और यथार्थ है, तेरे दिव्य विधान की योजना इतने स्पष्ट रूप से अंकित है कि शांति वापिस आ गयी है और उसने अपने-आपको कार्य-कर्ताओं के हृदयों में प्रतिष्ठित कर लिया है। अब कोई संदेह, हिचकिचाहटें नहीं हैं और न ही कोई संताप या अधीरता बची है। कर्म की महान् सीधी रेखा है जो शाश्वत काल से सबके बावजूद, सबके विरुद्ध, सभी विरोधी आभासों और काल्पनिक चक्करों के बावजूद अपने-आपको संपादित करती जाती है । ये भौतिक व्यक्तित्व, अनंत संभवन में ये अग्राह्य क्षण जानते हैं कि वे मानवजाति को अचूक रूप से, अनिवार्य परिणामों की चिंता किये बिना, चाहे आभासी निष्कर्ष कैसे भी हों, एक कदम आगे बढ़ा देंगे। वे अपने-आपको तेरे साथ युक्त कर देते हैं, हे शाश्वत स्वामी, वे अपने-आपको तेरे साथ युक्त कर देते हैं, हे विश्व जननी, और इस दोहरे तादात्म्य में, एक उस तत् के साथ जो परे है और दूसरा उसके साथ जो समस्त अभिव्यक्ति है, समस्त अभिव्यक्ति है, वे पूर्ण निश्चिति के अनंत आनंदका रस लेते हैं ।
शांति, सारे जगत् में शांति ... ।
युद्ध एक आभास है,
विक्षोभ एक भ्रम है,
शांति उपस्थित है, निर्विकार शांति ।
जननी, मधुर मां जो मैं ही हूं, तू एक साथ विनाशक और स्रष्ट्री है। सारा विश्व अपने असंख्य जीवन के साथ तेरे वक्ष में निवास करता है और तू अपनी विशालता में उसके छोटे-से-छोटे परमाणु में निवास करती है ।
और तेरी अनंतता की अभीप्सा उसकी ओर मुड़ती है जो अभिव्यक्त नहीं है और उससे अधिकाधिक पूर्णता और अधिकाधिक समग्रता की अभिव्यक्ति के लिये पुकार करती है ।
सब कुछ एक तिहरी, सूक्ष्म दृष्टिवाली समग्र चेतना में एक ही है, व्यष्टि, वैश्व और अनंत ।
१ सितम्बर १९१४
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
हे दिव्य जननी, कैसे उत्साह के साथ, कैसे तीव्र प्रेम के साथ मैं तेरी गहनतम चेतना में आयी, तेरे उच्चतम प्रेम और पूर्ण सुख-शांति में आयी और तेरी भुजाओं दुबक गयी और मैंने तेरे साथ इतनी तीव्रता के साथ प्रेम किया कि मैं पूरी तरह से तू बन गयी। तब हमारे मूक आनंद की नीरवता में और भी अधिक गभीर गहराइयों में से एक आवाज उठी और उसने कहा, "उन लोगों की ओर मुड़ो जिन्हें तुम्हारे प्रेम की जरूरत है ।" चेतना के सभी स्तर प्रकट हुए, सभी उत्तरोत्तर जगत् प्रकट हुए। कुछ भव्य और प्रकाशमान, सुव्यवस्थित और स्पष्ट थे; उनका ज्ञान उज्ज्वल था, अभिव्यक्ति सामंजस्यपूर्ण और विशाल थी, उनकी इच्छा समर्थ और अपराजेय थी । तब जगत् अधिकाधिक अस्तव्यस्तता की बहुलता में अंधकारमय होने लगे, 'ऊर्जा' उग्र हो गयी और जड़ भौतिक जगत् अंधेरा और दुःखमय हो गया। और जब हमने अपने अनंत प्रेम में दुःख और अज्ञान के जगत् के भीषण कष्ट को पूरी तरह देखा, जब हमने अपने बच्चों को निराशाजनक संघर्ष में गुंथा हुआ देखा, जिन्हें ऐसी ऊर्जाओं ने, जो अपने पथ से भ्रष्ट हो गयी थीं, एक-दूसरे पर पटक दिया था, तो हमने तीव्र इच्छा की कि भागवत प्रेम का प्रकाश, एक रूपांतरकारी शक्ति इन उद्विग्न तत्त्वों के केंद्र में अभिव्यक्त हो । और फिर यह कि इच्छा और भी समर्थ और प्रभावकारी हो, हे अचिन्त्य परम प्रभो, हम तेरी ओर मुड़े और तेरी सहायता के लिये याचना की। और तब अज्ञात की अथाह गहराइयों में से एक उत्कृष्ट और दुर्जेय उत्तर आया और हम जान गये कि पृथ्वी "बचा ली गयी है ।"
२५ सितम्बर १९१४
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हे दिव्य और पूजनीय मां, तेरी सहायता के साथ कौन-सी चीज असंभव है ? उपलब्धि का मुहूर्त निकट है और तूने हमें अपनी सहायता का आश्वासन दिया है कि हम पूर्ण रूप से परम इच्छा को पूरा कर सकें ।
तूने हमें अचिन्त्य वास्तविकताओं और भौतिक जगत् की सापेक्षताओं के बीच उपयुक्त माध्यम के रूप में स्वीकार कर लिया है और हमारे बीच तेरी सतत उपस्थिति तेरे सक्रिय सहयोग का चिह्न है ।
प्रभु ने इच्छा की है और तू कार्यान्वित कर रही है :
पृथ्वी पर एक नये प्रकाश का उदय होगा ।
एक नया जगत् जन्म लेगा,
और जिन चीजों के लिये वचन दिया गया था वे पूरी की जायेंगी । *
*२९ मार्च १९५६ को माताजी ने इसे बदल कर यूं लिखा:
हे प्रभु, तूने इच्छा की और मैं उसे पूर्ण कर रही हूं।
पृथ्वी पर एक नये प्रकाश का उदय हो रहा है ।
एक नये जगत् ने जन्म ले लिया है,
और जिन चीजों के लिये वचन दिया गया था वे पूरी हो गयी हैं।
२८ सितम्बर १९१४
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मेरी लेखनी तेरी उपस्थिति के गीत गाने के लिये मूक है, हे प्रभो, तू एक राजा की न्याई है जिसने अपने राज्य पर पूरा अधिकार कर लिया है। तू हर प्रदेश को व्यवस्थित करता, श्रेणीबद्ध करता, विकसित करता और बढ़ाता हुआ उपस्थित है ।
तू उन्हें जगाता है जो सोये हुए हैं, जो तमस् में डूब रहे थे उन्हें तू सक्रिय बनाता है। तू सबको एक सामंजस्य में ढाल रहा है। एक दिन आयेगा जब सामंजस्य प्राप्त हो जायेगा और समस्त देश स्वयं अपने जीवन द्वारा तेरी वाणी और तेरी अभिव्यक्ति का वाहक होगा ।
लेकिन इस बीच, मेरी लेखनी तेरे गुणगान करने के लिये मूक है ।
३० सितम्बर १९१४
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प्रभो, तूने विचार के सभी अवरोधों को तोड़ दिया है और सिद्धि अपने समस्त विस्तार में प्रकट हो गयी है। तू हमें अपने परम हस्तक्षेप द्वारा इसमें सहायता देगा कि हम उसके किसी भी पार्श्व को न भूलें, एक ही साथ, उनमें से किसी भी पार्श्व की अवहेलना किये बिना, उनकी उपलब्धि को चरितार्थ करें, किसी भी सीमा या किसी भी अवरोध को मार्ग में आकर हमारे अभियान में देर न लगाने दें। और वे सब जो स्वयं तू हैं, जो किसी विशेष क्रिया की पूर्णता में तुझे अभिव्यक्त करते हैं, वे भी हमारे सहयोगी होंगे क्योंकि तेरी यही इच्छा
है ।
हमारी दिव्य जननी हमारे साथ हैं और उन्होंने हमें परम और समग्र चेतना के साथ तादात्म्य का वचन दिया है - अपरिमेय गहराइयों से लेकर इंद्रियों के अत्यंत बाह्य जगत् तक। और इन सभी क्षेत्रों में अग्निदेव अपनी पावन ज्वाला की सहायता देने का वचन देते हैं, वे सभी बाधाओं को भस्म कर देंगे, ऊर्जाओं को प्रज्ज्वलित करेंगे, इच्छा को प्रोत्साहन देंगे ताकि सिद्धि जल्दी आ सके। हमारे ज्ञान में प्रदीपन की पूर्णता के लिये इंद्रदेव हमारे साथ हैं और दिव्य सोमदेव ने हमें अपने उस अनंत, परम, अद्भुत प्रेम में रूपांतरित कर दिया है जो परम आनंद को लानेवाला है . . . |
हे दिव्य और मधुर जननी, मैं तुझे भाव-विभोर, अकथनीय कोमलता और अनंत विश्वास के साथ नमन करती हूं ।
हे भव्य अग्निदेव, तू जो मेरे अंदर इतने जीवंत रूप में है, मैं तुझे पुकारती हूं, मैं तेरा आह्वान करती हूं कि तू और अधिक जीवित जाग्रत् हो, कि तेरा यज्ञकुंड और अधिक विस्तृत हो, तेरी ज्वालाएं ज्यादा ऊंची और ज्यादा शक्तिशाली हों, कि सारी सत्ता अब केवल एक तीव्र ज्वलंत, पावन चिता हो ।
ज्ञान प्रदान कर ।हे इंद्रदेव, मैं तेरी पूजा और स्तुति करती हूं, और स्तुति करती हूं, मैं तुझसे याचना करती हूं कि तू मेरे साथ युक्त हो जा, कि तू निश्चित रूप से विचार के सब अवरोधों को भंग कर दे और तू मुझे दिव्य ज्ञान प्रदान कर |
ओ तू, परम प्रेम, जिसे मैंने कभी कोई और नाम नहीं दिया परंतु जो पूरी तरह से मेरी सत्ता का सारतत्त्व है, जिसे मैं शरीर के छोटे-से-छोटे परमाणु और साथ ही अनंत विश्व और उसके परे भी जीवित और स्पंदित होते हुए अनुभव करती हूं, तू जो हर श्वास में सांस लेता है, सभी क्रिया-कलापों के हृदय में धड़कता है, जो कुछ सद्भावनापूर्ण है उस सबमें से विकीरित होता है और सारे कष्टों के पीछे छिपा हुआ है, तू जिसके लिये मैं एक असीम पूजा को हृदय में संजोये रखती हूं जो हमेशा अधिकाधिक तीव्र होती जाती है, ऐसा वर दे कि मैं अधिकाधिक विवेक सहित यह अनुभव कर सकूं कि मैं पूरी तरह तू ही हूं ।
और तू हे प्रभो, जो इन सबका योग और उससे कहीं अधिक है, हे सर्वश्रेष्ठ स्वामी, हमारे विचार की पराकाष्ठा, जो हमारे लिये अज्ञात की देहली पर खड़ा है, उस अचिन्त्य में से किसी नयी भव्यता को उठा, उच्चतर और अधिक पूर्ण उपलब्धि की संभावनाओं को उठा ताकि तेरा कार्य चरितार्थ हो और विश्व परम तादात्म्य और परम अभिव्यक्ति की ओर एक कदम और आगे बढ़ा सके ।
और अब मेरी लेखनी मूक हो जाती है और मैं नीरवता में तेरी आराधना करती हूं।
५ अकतूबर १९१४
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तेरे ध्यान की निश्चल-नीरवता में, हे दिव्य स्वामी, प्रकृति फिर से सुदृढ़ और संतुलित हो उठी है। व्यक्तित्व के समस्त तत्त्व को पार कर लिया गया है और अब वह तेरी अनंतता में डुबकी लगाये हुए है जो सभी क्षेत्रों में, बिना अस्त- व्यस्तता या विक्षोभ के एकत्व को चरितार्थ होने देती है । जो स्थायी रहता है, जो प्रगति करता है और जो शाश्वत है उनका सम्मिलित सामंजस्य, थोड़ा-थोड़ा करके हमेशा अधिक जटिल, अधिक विस्तारित और अधिक उच्च संतुलन में चरितार्थ होता है । और जीवन के इन तीनों प्रकारों का परस्पर आदान-प्रदान अभिव्यक्ति की बहुलता की अनुमति देता है ।
बहुत-से लोग तुझे इस घड़ी संताप और अनिश्चिति में ढूंढ़ते हैं । वर दे कि मैं उनके और तेरे बीच माध्यम बन सकूं ताकि तेरा प्रकाश उन्हें आलोकित करे, तेरी शांति उन्हें संतुष्ट करे । मेरी सत्ता अब तेरी क्रिया के लिये एक सहारे का बिंदु और तेरी चेतना का एक केंद्र है । अब सीमाएं कहां हैं, अवरोध किधर भाग गये ? तू अपने राज्य का अधिराट् स्वामी है ।
७ अकतूबर १९१४
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कृपा कर कि सारी पृथ्वी पर प्रकाश उंडेला जाये और शांति प्रत्येक हृदय में निवास करे...। प्रायः सभी केवल जड़ भौतिक, भारी, तामसिक, पुराणपंथी, धुंधले जीवन को जानते हैं; उनकी प्राणिक शक्तियां अपने जीवन के भौतिक रूप से इतनी ज्यादा बंधी होती हैं कि अगर उन्हें शरीर के बाहर स्वयं अपने ऊपर ही छोड़ दिया जाये तब भी वे पूरी तरह उन भौतिक संयोगों में तल्लीन रहती हैं जो तब भी बहुत परेशान करनेवाले और पीड़ादायक होते हैं . . ...। जिन लोगों में मानसिक जीवन जाग जाता है वे बेचैन, संतप्त, उत्तेजित, स्वेच्छाचारी और निरंकुश होते हैं। ऐसे पुनर्नवीकरण और रूपांतरों के भंवर में फंसकर, जिनके वे स्वप्न लिया करते हैं, वे हर चीज को नष्ट करने के लिये तैयार होते हैं जब कि उन्हें किसी ऐसी नींव का पता नहीं होता जिसपर निर्माण करना है, उनका प्रकाश केवल चौधियानेवाली कौंधों से बना होता है, इससे वे अस्तव्यस्तता को समाप्त करने में सहायक होने की जगह उसे और भी बढ़ा देते हैं ।
सभीके अंदर तेरे उच्चतम ध्यान की अपरिवर्तनशील शांति और तेरी अक्षर शाश्वतता की शांत दृष्टि का अभाव है।
इस व्यष्टिगत सत्ता की अनंत कृतज्ञता के साथ जिसे तूने सर्वोत्कृष्ट कृपा प्रदान की है, मैं तुझ से याचना करती हूं, हे प्रभो, कि वर्तमान उथल-पुथल के पर्दे में, इस अत्यधिक अस्त-व्यस्तता के ठीक हृदय में चमत्कार क्रियान्वित हो जाये और तेरी परम प्रशांतता और विशुद्ध अपरिवर्तनशील प्रकाश का विधान सबकी दृष्टि के लिये दृश्य हो जाये और एक ऐसी मानवजाति में पृथ्वी पर राज्य करे जो अंततः तेरी दिव्य चेतना के प्रति जाग जाये ।
हे मधुर स्वामी, तूने मेरी प्रार्थना सुन ली है, तू मेरी पुकार का उत्तर देगा ।
१४ अकतूबर १९१४
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दिव्य जननी, तू हमारे साथ है; प्रत्येक दिन तू मुझे आश्वासन देती है और अधिकाधिक पूर्ण और अधिकाधिक सतत रूप से विकसित होते हुए तादात्म्य के साथ घनिष्ठ रूप में युक्त हम विश्व के प्रभु की ओर तथा जो परे है उसकी ओर बड़ी अभीप्सा के साथ नये प्रकाश के लिये मुड़ते हैं । समस्त पृथ्वी एक रोगी बालक की तरह हमारी भुजाओं में है, जिसके लिये उसकी दुर्बलता के कारण ही हमें विशेष स्नेह है- और उसका रोगमुक्त होना जरूरी है। शाश्वत संभवनों की विशालता में झूलते हुए, क्योंकि स्वयं हम ही वे संभवन हैं, हम नीरवता और प्रसन्नता में अविचल निश्चल नीरवता की शाश्वतता का ध्यान करते हैं जहां सब कुछ उस पूर्ण चेतना और अविकारी सत्ता में उपलब्ध है जो परे विद्यमान अज्ञान का चमत्कारिक द्वार है ।
तब पर्दा फट जाता है, अवर्णनीय महिमा का उद्घाटन हो जाता और अनिर्वाच्य भव्यता से ओत-प्रोत होकर हम संसार को शुभ समाचार देने के लिये उसकी ओर लौटते हैं ।
प्रभो, तूने मुझे अनंत सुख प्रदान किया है। कौन-सी सत्ता में, कौन-सी परिस्थिति में इतनी शक्ति है जो मुझसे उसे छीन सके ?
२५ अकतूबर १९१४
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हे प्रभो, तेरे प्रति मेरी अभीप्सा ने एक सामंजस्यपूर्ण, पूरी तरह खिले हुए और सुगंध से भरे सुंदर गुलाब का रूप ले लिया है। मैं समर्पण की मुद्रा में दोनों बांहें फैलाकर उसे तेरी ओर बढ़ा रही हूं और मैं तुझसे याचना करती हूं : अगर मेरी समझ सीमित है तो उसे विस्तृत कर; अगर मेरा ध्यान धुंधला है तो उसे आलोकित कर; अगर मेरा हृदय उत्साह से खाली है तो उसे प्रज्ज्वलित कर; अगर मेरा प्रेम तुच्छ है तो उसे तीव्र बना; अगर मेरी भावनाएं अज्ञान-भरी और अहंकारपूर्ण हैं तो उन्हें सत्य के अंदर पूरी चेतना प्रदान कर और जो "मैं" तुझसे यह सब मांग रही हूं वह हे प्रभो, एक छोटा-सा व्यक्तित्व नहीं है जो हजारों में खोया हुआ है, सारी पृथ्वी उत्साह-भरी गति में तेरे प्रति अभीप्सा कर रही है ।
मेरे ध्यान की पूर्ण नीरवता में सब कुछ अनंतता में विस्तृत हो जाता है और उस नीरवता की पूर्ण शांति में तू अपने प्रकाश की देदीप्यमान महिमा में प्रकट होता है।
८ नवंबर १९१४
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हे प्रभो, तेरे प्रकाश की पूर्णता के लिये हम तेरा आह्वान करते हैं । हमारे अंदर वह शक्ति जगा जो तुझे प्रकट करे ।
सत्ता में सब कुछ मरुभूमि के शव कक्ष की तरह मूक है; लेकिन छाया के हृदय में, नीरवता के वक्ष में ऐसा दीपक जल रहा है जिसे कभी बुझाया नहीं जा सकता और जल रही है तुझे जानने और पूर्णतया तुझे जीने की तीव्र अभीप्सा ।
दिनों के बाद रातें आती हैं, अथक रूप से नयी उषाएं पिछली उषाओं के बाद आती हैं, लेकिन हमेशा सुगंधित ज्वाला ऊपर उठती रहती है जिसे कोई आंधी- तूफान कंपा नहीं सकता। वह ऊंची और ऊंची उठती जाती है और एक दिन अभीतक बंद तिजोरीतक जा पहुंचती है, वह हमारे ऐक्य का विरोध करनेवाला अंतिम अवरोध है । ज्वाला इतनी शुद्ध, इतनी सीधी, इतनी गर्वीली है कि अवरोध अचानक लुप्त हो जाता है।
तब तू अपनी समस्त भव्यता में, अपनी अनंत महिमा की चौंधियानेवाली शक्ति में प्रकट होता है; तेरे संपर्क से ज्वाला ऐसे प्रकाश स्तंभ में बदल जाती है जो हमेशा के लिये छायाओं को मार भगाता है ।
और महामंत्र उछल पड़ता है जो परम अंतः प्रकाश है ।
वर्ष: १९१५
१५ फ़रवरी १९१५
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हे सत्य के प्रभो, मैंने गहरे उत्साह के साथ तीन बार तेरी अभिव्यक्ति का आह्वान करते हुए तेरी याचना की ।
और फिर, हमेशा की तरह सारी सत्ता ने पूर्ण समर्पण किया। उस क्षण चेतना ने मानसिक, प्राणिक और भौतिक व्यक्तिगत सत्ता को पूरी तरह धूल से ढका हुआ देखा, और यह सत्ता तेरे आगे प्रणत थी, उसका ललाट धरती को छू रहा था, धूल में धूल मिल गयी और उसने चिल्लाकर तुझसे कहा, "हे प्रभो, धूल से बनी हुई यह सत्ता तेरे आगे प्रणत है और प्रार्थना कर रही है कि वह सत्य की अग्नि में भस्म हो जाये ताकि आगे से वह केवल तुझे ही अभिव्यक्त कर सके ।” तब तूने उससे कहा, “उठ, जो कुछ धूल है उस सबसे तू शुद्ध
है ।" और अचानक एक झटके में सारी धूल उससे झड़ गयी, उस लबादे की भांति जो जमीन पर गिर जाता है और सत्ता सीधी, हमेशा की तरह सारगर्भित परंतु चौंधियानेवाले प्रकाश की तरह देदीप्यमान हो उठी ।
३ मार्च १९१५
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कामो मारू जहाज पर :
एकांत, कठोर, तीव्र एकांत और हमेशा ऐसा तीव्र अनुभव मानों मैं अंधकार. के नरक में सिर के बल फेंक दी गयी होऊं ! अपने जीवन के किसी भी क्षण, किसी भी परिस्थिति में मैंने ऐसा अनुभव नहीं किया कि मैं ऐसे प्रतिवेश में रही होऊं जहां सब कुछ, जिसे मैं सच्चा मानती हूं उसके एकदम विरुद्ध हो, जो कुछ मेरे जीवन का सार-तत्त्व है उसके एकदम विपरीत हो । कभी-कभी जब अनुभव और विरोध बहुत तीव्र हो जाते हैं तो मैं अपने संपूर्ण समर्पण को उदासी का रंग लेने से नहीं रोक सकती, और अंतस्थ प्रभु के साथ शांत और मौन वार्तालाप क्षण भर के लिये एक आह्वान में रूपांतरित हो जाता है जो लगभग चिरौरी करता है, "हे प्रभो, ऐसा मैंने क्या किया है कि तूने मुझे इस निराशाजनक रात्रि में फेंक दिया है ?" लेकिन तुरंत अभीप्सा उठती है, जो पहले से भी तीव्र होती है, "इस सत्ता को समस्त दुर्बलता से बचा, इसे अपने कार्य के लिये आज्ञा परायण और स्पष्ट दृष्टिवाला यंत्र (करण) बना, वह कार्य चाहे कुछ क्यों न हो ।"
अभी इस क्षण स्पष्ट दृष्टि का अभाव है; भविष्य आज से अधिक ढका हुआ कभी न था। जहांतक व्यष्टिगत मनुष्यों की नियति का सवाल है, ऐसा लगता है मानों हम ऊंची, अभेद्य दीवार की ओर गति कर रहे हैं । रही बात देशों और पृथ्वी की नियतियों की तो वे ज्यादा स्पष्ट दिखलायी देती हैं। लेकिन इनके बारे में बोलना बेकार है : भविष्य उन्हें सभी आंखों के आगे स्पष्ट रूप से प्रकट कर देगा, यहांतक कि अत्यधिक अंधों के आगे भी ।
७ मार्च १९१५
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बीत गया, मधुर मानसिक नीरवता का समय बीत गया है जिसके द्वारा गहरी इच्छा को अपने-आपको सर्वशक्तिमान् सत्य में प्रकट करते हुए देखा जा सकता था। अब इच्छा और अधिक नहीं दिखायी देती और मन फिर से अनिवार्यतः सक्रिय है; वह विश्लेषण करता, वर्गीकरण करता, निर्णय करता, चुनाव करता, व्यक्तित्व पर जो भी चीज आरोपित की जाती है उसपर सतत रूप से रूपांतरकारी प्रतिनिधि की तरह काम करता है । वह इतना पर्याप्त विस्तृत हो गया है कि अनंत रूप में विस्तृत और जटिल जगत् के साथ, धरती की सभी चीजों की तरह प्रकाश और छाया के मिले-जुले जगत् के साथ संपर्क में रह सके। मैं हर आध्यात्मिक सुख से निर्वासित हूं और हे प्रभो, तेरे द्वारा आरोपित सभी अग्नि परीक्षाओं में से यह निश्चित रूप से सबसे बढ़कर पीड़ादायक है, और सबसे बढ़कर तेरी इच्छा का पूरी तरह निवर्तन जो पूरी अस्वीकृति का चिह्न मालूम होता है । परित्याग का बढ़ता हुआ भाव प्रबल है और इस तरह परित्यक्त बाह्य चेतना को असाध्य दुःख के आक्रमण से बचाने के लिये अथक श्रद्धा के सारे उत्साह की जरूरत होती है . . . ।
लेकिन वह निराश होने से इंकार करती है, वह यह मानने से इंकार करती है कि यह दुर्भाग्य ऐसा है जिसे सुधारा नहीं जा सकता, वह तेरे पूर्ण आनंद के श्वास के फिर से प्रवेश करने के लिये विनय के साथ धुंधले और छिपे हुए प्रयास और संघर्ष में प्रतीक्षा करती है । और शायद उसकी विनीत और प्रच्छन्न विजयों में से हर एक धरती के लिये लायी गयी सच्ची सहायता है . . . |
काश, इस बाहरी चेतना में से निश्चित रूप से बाहर निकलकर दिव्य चेतना में शरण ले सकना संभव होता ! लेकिन उसके लिये तूने मना कर दिया है, अभी और हमेशा के लिये तू इसका निषेध करता है । जगत् से बाहर की कोई उड़ान नहीं ! उसके अंधकार और उसकी कुरूपता का भार अंततक ढोना होगा, चाहे ऐसा क्यों न लगे कि समस्त भागवत सहायता खींच ली गयी है । मुझे रात्रि के वक्ष में रहना होगा और दिक्- सूचक के बिना, संकेत - दीप और आंतरिक पथ-प्रदर्शक के बिना आगे चलते चले जाना होगा ।
मैं तेरी दया के लिये याचना भी नहीं करूंगी क्योंकि तू मेरे लिये जो चाहता है वही मैं भी चाहती हूं। मेरी सारी ऊर्जा केवल आगे बढ़ने के लिये, सदा कदम- कदम आगे बढ़ने के लिये, अंधकार की घनता और रास्ते के अवरोधों के बावजूद आगे बढ़ने के लिये तत्पर है और हे प्रभो, जो कुछ भी आ जाये, उत्साहपूर्ण और अपरिवर्तनशील प्रेम के साथ तेरे निर्णय का स्वागत होगा । अगर तू यंत्र (करण) को अपनी सेवा के अयोग्य भी पाये तब भी यंत्र (करण) स्वयं अपना नहीं है तेरा ही है; तू चाहे इसे नष्ट कर दे या महिमान्वित कर दे; इसका अस्तित्व स्वयं अपने लिये नहीं है, किसी चीज की इच्छा नहीं करता, तेरे बिना यह कुछ भी नहीं कर सकता ।
८ मार्च १९१५
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
अधिकतर भाग में स्थिति अचंचल और गहरी उदासीनता की है; सत्ता को न तो कामना का अनुभव होता है न अरुचि का, न उत्साह का न अवसाद का, न खुशी का न दुःख का। वह जीवन को एक ऐसे दृश्य के रूप में देखती है जिसमें उसकी
भूमिका बहुत छोटी-सी है; वह अपनी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं, संघर्षों और शक्तियों को ऐसी चीजों के रूप में देखती है जो उसके जीवन की हैं और उसके तुच्छ व्यक्तित्व के हर पार्श्व से उमड़ती हैं और फिर भी उस व्यक्तित्व के लिये बिल्कुल विजातीय और दूरवर्ती हैं ।
लेकिन समय-समय पर एक बड़ा निःश्वास गुजरता है, दुःख का महान् निःश्वास, संतप्त एकाकीपन का, आध्यात्मिक निराश्रयता का निःश्वास, - हम कह सकते हैं कि यह भगवान् द्वारा परित्यक्त पृथ्वी की निराशा भरी पुकार है । यह एक हूक है जो उतनी ही नीरव है जितनी क्रूर, एक विनम्र पीड़ा जिसमें विद्रोह नहीं है, जिसे उसमें से बच निकलने की, उसे दूर रखने की कामना नहीं है और जो अनंत मधुरता से भरी है जिसमें कष्ट और सुख-शांति का गठ-बंधन है, कोई ऐसी चीज जो अनंत रूप से विस्तृत, महान् और गभीर है, इतनी ज्यादा महान् और गभीर है कि वह मनुष्यों की समझ के बाहर है – कोई ऐसी चीज जो अपने अंदर 'आगामी कल’ का बीज लिये हुए है...।
२६ नवंबर १९१५
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
सारी चेतना दिव्य निदिध्यासन में निमग्न हो गयी और पूरी सत्ता ने परम और बृहत् सुख-शांति का आनंद लिया ।
फिर भौतिक शरीर, पहले तो अपने निम्नतर अंगों में और उसके बाद अपनी समस्त सत्ता में एक प्रकार की पवित्र सिहरन से आक्रांत हो गया जिस सिहरन ने सभी व्यक्तिगत सीमाओं को थोड़ा-थोड़ा करके अत्यंत जड़ भौतिक संवेदनोंतक से झाड़ फेंका। सत्ता उत्तरोत्तर विशालता में बढ़ती गयी, वह विधिवत् हर अवरोध को तोड़ती, हर बाधा को चकनाचूर करती जाती थी ताकि वह उस शक्ति और सामर्थ्य को अपने अंदर समा सके और अभिव्यक्त कर सके जो बिना रुके विशालता और तीव्रता में बढ़ती जाती है । यह कोषाणुओं का उत्तरोत्तर विस्तार था, यहांतक कि समस्त पृथ्वी के साथ पूर्ण तादात्म्य हो गया : जाग्रत् चेतना का शरीर था पार्थिव गोला जो सामंजस्य के साथ वायवीय आकाश में घूम रहा था । और चेतना जानती थी कि उसका गोलाकार शरीर इस तरह से वैश्व सत्ता की भुजाओं में घूम रहा था और उसने अपने-आपको दे दिया, उसने अपने-आपको शांतिमय आनंद के आनंदातिरेक में छोड़ दिया, फिर उसने अनुभव किया कि उसका शरीर विश्व के शरीर में आत्मसात् होकर एक हो गया; चेतना वैश्व चेतना बन गयी जो अपनी
संपूर्णता में अचंचल थी, अपनी आंतरिक जटिलता में अनंत रूप में गतिशील थी । तीव्र अभीप्सा और पूर्ण समर्पण में विश्व की चेतना भगवान् की ओर उछली और उसने निर्मल प्रकाश के वैभव में कांतिमय सत्ता को अनेक सिरोंवाले सर्प के ऊपर सीधा खड़ा हुआ देखा जिसका शरीर विश्व के चारों ओर अगणित रूप में कुंडलित था। उस सत्ता ने विजय के शाश्वत संकेत में एक ही साथ, एक ही समय में सर्प और उससे निकलनेवाली सृष्टि का सृजन किया; सर्प के ऊपर सीधे खड़े होकर वह अपनी समस्त विजयी शक्ति के साथ उसको वश में किये हुए थी और उसी संकेत ने, जिससे उसने विश्व को लपेटनेवाले सर्प को कुचल दिया था, उसे शाश्वत जन्म दिया । तब चेतना यह सत्ता बन गयी और उसने देखा कि फिर एक बार उसका रूप बदल रहा है; वह किसी ऐसी चीज में आत्मसात् कर ली गयी जो अब रूप न रह गयी थी फिर भी सभी रूपों को अपने अंदर समाये हुए थी; कोई ऐसी चीज जो निर्विकार है और देखती है, जो चक्षु है, साक्षी है । और वह जिसे देखती है वह होती है । तब रूप का अंतिम अवशेष गायब हो गया और स्वयं वह चेतना अनिर्वचनीय, अवाच्य में आत्मसात् हो गयी ।
व्यक्तिगत शरीर की चेतना की ओर लौटना बहुत धीरे-धीरे प्रकाश, शक्ति, सुख-शांति तथा आराधना की सतत तथा अपरिवर्तनशील भव्यता में उत्तरोत्तर क्रमों हुआ, परंतु हुआ फिर से वैश्व और पार्थिव रूपों में से गुजरे बिना सीधा और वह मानों सीधा-सादा शारीरिक रूप परम और शाश्वत साक्षी का तात्कालिक आच्छादन बन गया जिसमें कोई साधन या मध्यस्थ न था ।
वर्ष: १९१६
२६ दिसम्बर १९१६
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
तू मुझे नीरवता में जो शब्द सुनाता है वह हमेशा मधुर और उत्साह वर्धक होता है, हे प्रभो । लेकिन मैं नहीं देख पाती कि यह यंत्र (करण) किस कारण उस कृपा के योग्य है जो तू उसे प्रदान कर रहा है या तू उससे जिसकी आशा करता है, वह उसकी योग्यता कैसे प्राप्त करेगा। उसके अंदर सब कुछ इतना छोटा, दुर्बल और सामान्य प्रतीत होता है, इस महान् भूमिका को स्वीकार करने के लिये उसे जो होना चाहिये उसकी तुलना में वह तीव्रता, शक्ति और प्राचुर्य से इतना रहित मालूम होता है। लेकिन मैं जानती हूं कि जो मन सोचता है उसका कोई महत्त्व नहीं । मन अपने-आप भी यह जानता है और वह निष्क्रिय रहकर तेरी आज्ञा के कार्यान्वित होने की प्रतीक्षा करता है ।
तू मुझे आज्ञा देता है कि बिना रुके प्रयास करती चलूं और मैं ऐसे अदम्य उत्साह की चाह करती हूं जो हर कठिनाई पर विजय पा सके। लेकिन तूने मेरे हृदय में ऐसी मुस्कुराती हुई शांति रख दी है कि अब मुझे यह भी पता नहीं कि प्रयास कैसे किया जाये। मेरे अंदर चीजें, क्षमताएं और क्रियाशीलताएं ऐसे विकसित होती हैं जैसे फूल खिलते हैं, सहज रूप में और बिना प्रयास के, आनंद में, होने के आनंद में, बढ़ने के आनंद में और तुझे अभिव्यक्त करने के आनंद में, फिर चाहे तुझे अभिव्यक्त करने का तरीका कैसा भी क्यों न हो । अगर संघर्ष है भी तो वह इतना कोमल और सरल है कि उसे यह नाम नहीं दिया जा सकता । लेकिन इतने महान् प्रेम को अपने अंदर समाने के लिये यह हृदय कितना छोटा है ! और यह प्राण और यह शरीर इसे वितरित करने की शक्ति को संभालने के लिये कितने दुर्बल हैं ! इस भांति तूने मुझे अद्भुत मार्ग की देहली पर खड़ा कर दिया है, लेकिन क्या मेरे चरणों में इतना बल होगा कि इसपर बढ़ सकें ? . . . लेकिन तू मुझे उत्तर देता है कि मेरा काम है उड़ान भरना और यह मेरी भूल होगी कि मैं चलने की इच्छा करूं...। हे प्रभो, तेरी अनुकंपा कितनी अनंत है ! फिर एक बार तूने मुझे अपनी सर्वशक्तिमान् भुजाओं में लेकर अपने अथाह हृदय में झुलाया है और मुझसे कहा है, "अपने-आपको जरा भी यातना न दे, बच्चे की तरह विश्वस्त रह : क्या तू मेरे कार्य के लिये मेरा ही निश्चित स्फटिक रूप नहीं है ?"
२७ दिसम्बर १९१६
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
हे मेरे परम प्रिय स्वामी, मेरा हृदय तेरे आगे झुका हुआ है, मेरी भुजाएं तेरी ओर फैली हुई हैं और तुझसे याचना करती हैं कि इस सारी सत्ता को अपने श्रेष्ठ प्रेम से प्रज्ज्वलित कर दे ताकि वह वहां से सारे जगत् पर विकीरित हो सके । मेरे वक्षस्थल में मेरा हृदय पूरी तरह खुला हुआ है, मेरा हृदय खुला हुआ और तेरी ओर मुड़ा हुआ है, वह खुला हुआ और खाली है ताकि तू उसे अपने दिव्य प्रेम से भर दे; वह तेरे सिवा हर चीज से खाली है और तेरी उपस्थिति उसे पूरा-पूरा भर देती है और फिर भी खाली रखती है, क्योंकि वह अपने अंदर अभिव्यक्त जगत् की अनंत विविधता को भी समा सकता है .
हे प्रभो, मेरी भुजाएं अनुनय-विनय में तेरी ओर फैली हुई हैं, मेरा हृदय पूरी तरह तेरी ओर खुला हुआ है ताकि तू उसे अपने अनंत प्रेम का जलाशय बना सके ।
हे प्रभो, मेरी भुजाएं अनुनय-विनय में तेरी ओर फैली हुई हैं, मेरा हृदय पूरी तरह तेरी ओर खुला हुआ है ताकि तू उसे अपने अनंत प्रेम का जलाशय बना सके ।
"सभी चीजों में, सब जगह और सभी सत्ताओं में मुझसे प्रेम कर" यह था तेरा उत्तर । मैं तेरे आगे साष्टांग प्रणत होकर तुझसे याचना करती हूं कि मुझे वह शक्ति प्रदान कर ।
वर्ष: १९१७
३० मार्च १९१७
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
अपने लिये कोई विचार न करने में एक राजोचित भव्यता है । आवश्यकताएं होने का अर्थ है दुर्बलता को प्रस्थापित करना । किसी चीज के लिये दावा करने का अर्थ है यह प्रमाणित करना कि वह चीज हमारे पास नहीं है । कामना करने का अर्थ है असमर्थ होना; यह अपनी सीमाओं को स्वीकार करना और उनपर विजय पाने में अपनी असमर्थता स्वीकार करना है ।
चाहे समुचित गर्व की दृष्टि से ही देखा जाये तो मनुष्य के अंदर इतनी कुलीनता तो होनी ही चाहिये कि वह अपनी कामनाओं का त्याग करे । जीवन या परम चेतना से, जो उसे अनुप्राणित करती है, अपने लिये कुछ मांगना कितना अपमानजनक है ! हमारे लिये कितना अपमानजनक है और उसके प्रति कितना अज्ञानमय अपराध है! क्योंकि सब कुछ हमारी पहुंच में है, केवल हमारी सत्ता की अहंकारमय सीमाएं हमें समस्त विश्व का पूरी तरह और ठोस रूप में उस तरह आनंद लेने से रोकती हैं जिस तरह हम अपने शरीर और उसके इर्द-गिर्द की चीजों पर अधिकार रखते हैं ।
कर्म के साधनों के प्रति हमारी ऐसी ही वृत्ति होनी चाहिये ।
ओ तू जो मेरे हृदय में निवास करता और अपनी परम इच्छा द्वारा सबका निदेशन करता है, तूने एक वर्ष पहले मुझसे कहा था कि मैं अपने सभी पुलों को जला दूं और अपने-आपको सिर के बल अज्ञान में डाल दूं जैसा कि सीजर ने 'रुबिकन' नदी पार करते समय किया था : इसका अर्थ था या तो 'कैपिटोल' का शिखर या 'टारपीयन' की पहाड़ी ।
तो तूने कर्म के परिणाम को मेरी आंखों से छिपाया । तू अभीतक उसे एक रहस्य की तरह रखता है; लेकिन फिर भी तू जानता है कि महानता और दरिद्रता दोनों के आगे मेरी समानता एक-सी बनी रहती है ।
तूने इच्छा की है कि मेरे लिये भविष्य अनिश्चित रहे और मैं यह जाने बिना कि रास्ता किस ओर लिये जा रहा है, विश्वास के साथ आगे बढ़ती चली जाऊं ।
तूने इच्छा की है कि मैं अपनी नियति का भार पूरी तरह तेरे हाथों में छोड़ दूं और अपनी सभी व्यक्तिगत व्यस्तताओं का त्याग कर दूं ।
निश्चय ही इसका यह अर्थ है कि मेरा मार्ग मेरे अपने विचारतक के लिये अछूता होना चाहिये ।
३१ मार्च १९१७
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
हर बार जब कोई हृदय तेरे दिव्य श्वास के स्पर्श से उछल पड़ता है तो ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर थोड़ी और सुंदरता उत्पन्न हो गयी है, हवा एक मधुर सुगंध से सुवासित हो गयी है और सब कुछ अधिक मैत्रीपूर्ण हो गया है ।
समस्त अस्तित्वों के प्रभो, तेरी शक्ति कितनी महान् है कि तेरे आनंद का एक परमाणु इतने अधिक अंधकार को मिटाने, इतने अधिक दुःखों को दूर करने के लिये काफी है और तेरी महानता की एक किरण अत्यंत मंद कंकड़ों को चमका सकती और काली से काली चेतना को भी आलोकित कर सकती है !
तूने मेरे ऊपर अपनी कृपाओं के ढेर लगा दिये हैं; तूने मेरे लिये बहुत-से रहस्यों के पर्दे उठा दिये हैं, तूने मुझे बहुत-सी अप्रत्याशित और अनपेक्षित खुशियों का आस्वादन कराया है, लेकिन तेरी कोई कृपा उस कृपा की बराबरी नहीं कर सकती जो तू मुझे उस समय प्रदान करता है जब तेरे दिव्य श्वास के स्पर्श से कोई हृदय उछल पड़ता है ।
इन धन्य घड़ियों में धरती आनंद के गीत गाती है, वनस्पतियां आनंद से रोमांचित हो उठती हैं, पवन प्रकाश से कंपायमान हो जाता है, वृक्ष अपनी तीव्रतम प्रार्थना स्वर्ग की ओर उठाते हैं, चिड़ियों का चहकना भजन बन जाता है, सागर- तरंगें प्रेम से आलोड़ित होती हैं, बच्चों की मुस्कान अनंत के बारे में कहती है और मनुष्यों की आत्माएं उनकी आंखों में दिखायी देने लगती हैं ।
कह दे, क्या तू मुझे वह अद्भुत शक्ति प्रदान करेगा जो प्रत्याशी हृदयों में इस उषा को जन्म दे सके, जो मनुष्यों की चेतना को तेरी उत्कृष्ट उपस्थिति के प्रति जगा सके और इस रिक्त और दुःख-भरे जगत् में तेरे सच्चे स्वर्ग को थोड़ा-सा जगा ? इस अद्भुत उपहार की बराबरी कौन-सी खुशी, कौन-सी समृद्धि, कौन-सी पार्थिव शक्तियां कर सकती हैं !
हे प्रभो, मैंने कभी तुझसे व्यर्थ में अनुनय-विनय नहीं की है क्योंकि जो तेरे साथ बोलता है वह मेरे अंदर तू ही है ।
तू उर्वर बनानेवाली वृष्टि के रूप में एक-एक बूंद करके अपने सर्वशक्तिमान् प्रेम की जीवंत और मुक्त करनेवाली ज्वाला बरसने देता है । जब शाश्वत ज्योति की ये बूंदें कोमलता के साथ अंधेरे अज्ञान के हमारे इस जगत् पर बरसती हैं तो हम कह सकते हैं कि निराशाजनक अंधेरे आकाश से धरती पर एक-एक करके सुनहरे तारों की वर्षा हो रही है ।
इस चिरनवीन चमत्कार के आगे सब मूक भक्ति में घुटने टेके हुए हैं ।
७ अप्रैल १९१७
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
एक गहरी एकाग्रता ने मुझे पकड़ लिया और मैंने देखा कि मैं एक चेरी के फूल के साथ अपने-आपको तदात्म कर रही थी और उसके द्वारा चेरी के सभी फूलों के साथ, और जैसे-जैसे मैं चेतना की गहराई में एक नीली-सी शक्ति-धारा के पीछे-पीछे उतरती गयी, मैं अपने-आप अचानक चेरी का वह वृक्ष बन गयी जो पूजा के फूलों से लदी हुई अपनी असंख्य शाखाओं को अनेक बाहुओं की तरह आकाश की ओर फैला रहा था । तब मैंने स्पष्ट रूप में यह वाक्य सुना :
" तूने अपने-आपको चेरी के पेड़ों की आत्मा के साथ एक कर लिया है ताकि तू भली-भांति देख सके कि स्वयं भगवान् ही स्वर्ग के प्रति इस पुष्पमय प्रार्थना की भेंट चढ़ा रहे हैं । "
जब मैंने यह लिखा तो सब कुछ मिट गया; लेकिन अब उस चेरी के पेड़ का रक्त मेरी रंगों में बह रहा है और उसके साथ बहती है अतुलनीय शक्ति और शांति। मनुष्य-शरीर और एक पेड़ के शरीर में क्या अंतर है ? सचमुच कोई अंतर नहीं : जो चेतना इन दोनों को अनुप्राणित करती है वह अभिन्न रूप से एक ही है। तब चेरी के वृक्ष ने मेरे कानों में फुसफुसाकर कहा : “वसंत के रोगों का इलाज चेरी के फूलों में है । "
२८ अप्रैल १९१७
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
हे मेरे दिव्य स्वामी, जो आज की रात अपनी पूरी दीप्तिमान भव्यता में मेरे आगे प्रकट हुआ है, तू क्षण भर में इस सत्ता को पूर्णतया शुद्ध, प्रकाशमान, पारभासी और सचेतन बना सकता है। तू इसे इसके अंतिम काले धब्बों से मुक्त कर सकता है, इसे इसकी अंतिम पसंदों से छुड़ा सकता है। तू कर सकता है ... लेकिन क्या तूने आज रात यह कर ही नहीं दिया जब वह तेरे दिव्य निस्राव से और अनिर्वचनीय प्रकाश से भिदा हुआ था ? हो सकता है ... क्योंकि मेरे अंदर एक अतिमानवीय बल है जो संपूर्णतः अचंचलता और विशालता से भरा हुआ । वर दे कि मैं इस शिखर पर से गिरने न पाऊं; वर दे कि शांति हमेशा मेरी सत्ता के स्वामी के रूप में राज्य करे, केवल मेरी गहराइयों में ही नहीं जहां वह लंबे समय से राजाधिराज रही है, बल्कि मेरी निम्नतर बाहरी क्रियाओं में भी, मेरे हृदय के छोटे-से-छोटे अंतरालों और मेरे कर्मों में भी ।
हे प्रभो, सत्ताओं के मुक्तिदाता, मैं तुझे प्रणाम करती हूं !
"लो, ये रहे फूल और आशीर्वाद ! यह है दिव्य प्रेम की मुस्कान ! इसमें कोई पसंद और नापसंद नहीं है । यह सभीकी ओर उदार प्रवाह में उमड़ती है और कभी अपने अद्भुत उपहारों को वापिस नहीं लेती !”
शाश्वत मां परमानंद की मुद्रा में बांहें फैलाये हुए जगत् पर निरंतर अपनी शुद्धतम प्रेम की ओस बरसा रही हैं !
२४ सितम्बर १९१७
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
टोकियो:
तूने मुझे कठोर अनुशासन के आधीन कर दिया है; एक-एक डंडा करके मैं उस सीढ़ी पर चढ़ी हूं जो तुझतक ले जाती है और आरोहण के शिखर पर तूने मुझे अपने साथ तादात्म्य के पूर्ण आनंद का रसास्वादन कराया है। और तब तेरी आज्ञा का पालन करते हुए, एक के बाद एक डंडे को पार करती हुई मैं बाह्य क्रियाओं और चेतना की बाहरी अवस्थाओंतक उतर आयी और फिर से मैंने इन लोकों के संपर्क में प्रवेश किया जिन्हें मैं तुझे खोजने के लिये पीछे छोड़ गयी थी। और अब जब कि मैं सीढ़ी के निचले डंडेतक आ पहुंची हूं, सब कुछ मेरे अंदर और मेरे चारों और ऐसा मंद, ऐसा मामूली और उदासीन मालूम होता है कि मैं कुछ भी नहीं समझ पाती...।
तब फिर तू मुझसे किस चीज की आशा रखता है, और क्या लाभ है इस धीमी लंबी तैयारी का यदि इस सबका परिणाम अंत में वही होता हो जिसे अधिकतर मनुष्य बिना किसी अनुशासन के पा लेते हैं ?
यह कैसे संभव हो सकता है कि वह सब देख लेने के बाद जो मैंने देख लिया है, जिसका मैंने अनुभव किया है, जब मुझे तेरे ज्ञान के पवित्रतम मंदिर की ओर तेरे सायुज्य के पासतक ले जाया जा चुका है, फिर भी तूने मुझे ऐसी साधारण परिस्थितियों में, ऐसा मामूली-सा उपकरण बना दिया है? सचमुच, हे प्रभो, तेरे उद्देश्य अथाह और मेरी समझ के बाहर हैं . . . ।
जब तूने मेरे हृदय में अपनी पूर्ण सुख-शांति का शुद्ध हीरा रख दिया है, फिर तू यह कैसे सह सकता है कि उसकी सतह उन छायाओं को प्रतिबिंबित करे जो बाहर से आती हैं और तूने मुझे शांति की जो निधि प्रदान की है उसके बारे में संदेहतक नहीं होने पाता और तब वह प्रभावहीन- सी प्रतीत होने लगती है। सचमुच यह सब एक रहस्य है और मेरी समझ को चकरा देता है ।
जब तूने मुझे इतनी बड़ी आंतरिक नीरवता प्रदान की है तो तू मेरी जिह्वा को इतना सक्रिय और विचारों को व्यर्थ की बातों में इतना व्यस्त क्यों रहने देता है ? क्यों ? ... मैं अनंत कालतक ऐसे प्रश्न करती रह सकती हूं और पूरी संभावना तो यही है कि वे हमेशा बेकार ही हों ... ।
मुझे बस तेरी आज्ञा के आगे सिर झुकाना और बिना एक शब्द भी बोले अपनी परिस्थिति को स्वीकार करना है ।
अब मैं केवल एक द्रष्टा हूं जो विश्व के ड्रेगन को अपनी अनंत कुंडलियां खोलते हुए देखता है।
(कुछ दिन बाद)
हे प्रभो, कितनी बार तेरी आज्ञा के आगे दुर्बलता दिखाते हुए मैंने तुझसे प्रार्थना की है : “मुझे पार्थिव चेतना की इस सूली से बचा और मुझे अपने परम एकत्व में मिल जाने दे।” लेकिन मैं जानती हूं कि मेरी प्रार्थना कमजोर दिल से निकलती है क्योंकि वह असफल रहती है ।
१५ अकतूबर १९१७
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
हे प्रभो, मैंने अपनी निराशा में पुकारकर तुझसे कहा है, और तूने मेरी पुकार का उत्तर दिया है ।
मुझे अपने जीवन की परिस्थितियों के बारे में शिकायत करने का कोई अधिकार नहीं है; क्या वे मेरे अनुरूप नहीं हैं ?
चूंकि तू मुझे अपनी भव्यता की देहलीतक ले गया और तूने मुझे अपने सामंजस्य का आनंद प्रदान किया, इसलिये मैंने समझ लिया कि मैं लक्ष्यतक पहुंच गयी : लेकिन सचमुच तूने अपने यंत्र (करण) को अपने प्रकाश की पूर्ण स्पष्टता में देखा और फिर से उसे जगत् की कुठाली में डाल दिया ताकि वह नये सिरे से पिघलाया और शुद्ध किया जा सके।
इन अत्यधिक और संताप भरी अभीप्सा की घड़ियों में मैं देखती हूं, मैं अनुभव करती हूं कि मैं चकरानेवाली तेजी से रूपांतर के मार्ग पर तेरी ओर खिंची जा रही हूं और मेरी सारी सत्ता अनंत के साथ सचेतन संपर्क से स्पंदित हो रही है ।
इस तरह तू मुझे धीरज और बल देता है ताकि मैं इस नयी अग्नि परीक्षा को पार कर सकूं ।
२५ नवंबर १९१७
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
हे प्रभो, चूंकि मैंने दारुण विपत्ति के समय अपनी श्रद्धा की पूरी सच्चाई के साथ कहा था : “तेरी इच्छा पूरी हो", तू अपनी महिमा के परिधान में आया । मैं तेरे चरणों में साष्टांग नत हो गयी, तेरे वक्ष में मैंने अपना आश्रय पाया । तूने मेरी सत्ता को अपनी दिव्य ज्योति से भर दिया और अपने आनंद से आप्लावित कर दिया है। तूने अपने सख्य का फिर से विश्वास दिलाया है और मुझे अपनी सतत उपस्थिति का आश्वासन दिया है। तू वह विश्वस्त मित्र है जो कभी धोखा नहीं देता, तू शक्ति, सहारा और पथ-प्रदर्शक है। तू वह प्रकाश है जो अंधकार को बिखेर देता है, वह विजेता है जो विजय को निश्चित बनाता है। चूंकि तू उपस्थित है इसलिये सब कुछ स्पष्ट हो गया है । मेरे सुदृढ़ हृदय में अग्नि- फिर से प्रज्ज्वलित हो उठी है और उसकी भव्यता चमक रही है और सारे वातावरण को प्रदीप्त और शुद्ध कर रही है . . ।
तेरे लिये मेरा प्रेम, जो अभीतक दबा हुआ था, फिर से उछल पड़ा है, वह शक्तिशाली, प्रभुता-संपन्न और अप्रतिरोध्य है – उसे जिस अग्नि परीक्षा में से निकलना पड़ा है उससे वह दस गुना बढ़ गया है। उसने अपने एकांत में बल पाया है, सत्ता के ऊपरी तलतक उठ आने, अपने-आपको समस्त चेतना पर स्वामी के रूप में स्थापित करने का और अपनी उमड़ती हुई धारा में सब कुछ बहा ले जाने का बल पाया है . . ।
तूने मुझसे कहा है : "मैं लौट आया हूं और अब तुझे कभी न छोडूंगा । " और मैंने तेरे वचन को माटी में सिर नवाकर स्वीकार किया है |
वर्ष: १९१८
१२ जुलाई १९१८
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
अचानक, तेरे आगे मेरा सारा घमंड झड़ गया। मैं समझ गयी कि तेरी उपस्थिति में अपने-आप पर विजय पाने की कोशिश करना कितना व्यर्थ है, और मैं रो पड़ी, बहुत अधिक रोई और बिना रुके अपने जीवन के मधुरतम आंसू रोई . . । हां, वे आंसू कैसे स्फूर्तिदायक, अचंचल और मधुर थे जिन्हें मैंने बिना लज्जा या संयम के तेरे आगे बहाया ! क्या यह पिता की बांहों में बालक की तरह न था ? लेकिन पिता भी कैसा ! कैसी उदात्तता, कैसी भव्यता और समझ की कैसी विशालता ! और प्रत्युत्तर में कैसी शक्ति और बहुलता ! हां, मेरे आंसू पवित्र ओस की तरह थे। क्या यह इसलिये था कि मैं स्वयं अपने दुःख के लिये नहीं रोई थी ? मधुर और परोपकारी आंसू, ऐसे आंसू जिन्होंने बिना किसी बाधा के मेरे हृदय को तेरे आगे खोल दिया और एक चमत्कारिक क्षण में मुझे तुझसे अलग करनेवाली अवशिष्ट सभी विघ्न-बाधाओं को विलीन कर दिया ।
कुछ दिन पहले मैंने उसे जाना था, मैंने सुना था : " अगर तू बिना छिपाये और बिना रोके मेरे आगे रो सके तो बहुत-सी चीजें बदल जायेंगी, एक बहुत बड़ी विजय प्राप्त होगी ।" इसी कारण जब मेरे हृदय से आंसू आंखों की ओर उठे तो मैं आकर तेरे आगे बैठ गयी ताकि वे भक्ति भाव से भेंट के रूप में प्रवाहित हो सकें। और वह उत्सर्ग कितना मधुर और कितना विश्रामदायक था !
और अब जब कि मैं रो नहीं रही, मैं तेरे इतना निकट, इतना निकट अनुभव करती हूं कि मुझे खुशी से रोमांच हो रहा है ।
तुतलाते हुए मुझे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने दे :
मैं एक छोटे बच्चे के आनंद के साथ भी पुकार चुकी हूं, “हे परम और एकमात्र विश्वस्त सहचर, तू जो पहले से ही वह सब जानता है जो हम तुझसे कह सकते हैं क्योंकि तू ही तो उसका स्रोत है !
“हे परम और एकमात्र सखा, तू जो हमें स्वीकार करता है, हमसे प्रेम करता है और हमें वैसा ही समझता है जैसे कि हम हैं क्योंकि स्वयं तूने ही तो हमें ऐसा बनाया है !
“हे परम और एकमात्र पथ-प्रदर्शक, तू जो कभी हमारी उच्चतम इच्छा का प्रतिवाद नहीं करता क्योंकि उसके अंदर तू ही तो इच्छा करता है !
"तेरे सिवा कहीं और किसी ऐसे को ढूंढ़ना मूर्खता होगी जो हमारी बात सुने, समझे, हमसे प्रेम करे और हमें मार्ग दिखाये, क्योंकि तू हमेशा हमारे आह्वान पर तैयार रहता है और हमें कभी धोखा नहीं देता !
" तूने मुझे पूर्ण निर्भरता के, पूर्ण संरक्षण के, बिना कुछ बचाये और बिना कोई रंग चढ़ाये, बिना किसी प्रयास या अवरोध के, सर्वांगीण रूप से समर्पण करने के सर्वोपरि आनंद का, महान् आनंद का बोध प्रदान किया है।
"बच्चे की तरह आनंद के साथ मैं एक ही साथ तेरे आगे रोयी और हंसी, हे मेरे परम प्रिय !"
वर्ष: १९१९
३ सितम्बर १९१९
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
ओइवाके:
चूंकि मनुष्य ने उस भोजन को लेने से इंकार कर दिया जो मैंने इतने प्रेम और सावधानी से तैयार किया था, इसलिये मैंने भगवान् का आह्वान् किया कि वे उसे स्वीकार कर लें ।
मेरे भगवान्, तूने मेरा निमंत्रण स्वीकार कर लिया, तू मेरी मेज पर बैठकर खाने के लिये आ गया, और मेरी तुच्छ और विनम्र भेंट के बदले तूने मुझे अंतिम मुक्ति प्रदान की है । मेरा हृदय जो आज सवेरेतक परिताप और चिंता से इतना भारी था, मेरा सिर उत्तरदायित्व से इतना लदा था, दोनों अपने भार से मुक्त हो गये हैं । अब वे उसी तरह हल्के और प्रसन्न हैं जैसे मेरी आंतरिक सत्ता काफी समय से रही है । मेरा शरीर खुशी से तेरी ओर उसी तरह मुस्कराता है जैसे पहले मेरी आत्मा मुस्कराती थी । और हे मेरे भगवान्, निश्चय ही इसके बाद तू मेरे अंदर से इस आनंद को वापिस न खींचेगा ! मेरा ख्याल है कि इस बार के लिये पाठ पर्याप्त हो गया है, मैं उत्तरोत्तर मोह-निवारण की सूली पर चढ़ी हूं जो पुनरुज्जीवन प्राप्त करने के लिये काफी ऊंची है । एक समर्थ प्रेम के सिवा अतीत का कुछ भी नहीं बचा रह गया जो मुझे बालक का शुद्ध हृदय और एक देवता के विचार का हल्कापन और स्वाधीनता प्रदान करता है ।
वर्ष: १९२०
२२ जून १९२०
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
पांडिचेरी:
मुझे वह आनंद प्रदान करने के बाद जो सभी अभिव्यंजनाओं के परे है, तूने मेरे लिये, हे मेरे परम प्रिय प्रभो, संघर्ष और अग्नि परीक्षा भेजी है और इनपर भी मैं उसी तरह मुस्करायी हूं मानों यह तेरे मूल्यवान् संदेश-वाहकों में से एक हो । पहले मैं द्वंद्व से डरती थी क्योंकि वह मेरे अंदर विद्यमान सामंजस्य और शांति के प्रेम पर आघात करता था। लेकिन हे मेरे भगवान्, अब मैं खुशी से उसका स्वागत करती हूं : वह तेरे कर्म के रूपों में से एक रूप है, कर्म के कुछ तत्त्वों को, जिन्हें अन्यथा भुला दिया जाता, उन्हें फिर से प्रकाश में लाने के सबसे अच्छे साधनों में से एक साधन है और वह अपने साथ बहुलता, जटिलता और शक्ति के भाव को लिये रहता है। और जैसे मैंने तुझे ज्योति विकीरित करते हुए, द्वंद्व का सूत्रपात करते हुए देखा है, उसी तरह तुझे ही मैं घटनाओं और विरोधी प्रवृत्तियों की उलझनों को सुलझाते हुए और अंत में उन सब चीजों पर विजय पाते हुए देखती हूं जो तेरी ज्योति और तेरी शक्ति को आवृत करने की कोशिश करती हैं : क्योंकि संघर्ष में से ही तेरी अधिक पूर्ण सिद्धि उद्भूत होनी चाहिये ।
वर्ष: १९३१
२४ नवंबर १९३१
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |
हे मेरे प्रभो, मेरे मधुर स्वामी, तेरे कार्य की परिपूर्ति के लिये मैंने जड़ पदार्थ की अथाह गहराइयों में डुबकी लगायी है, मैंने अपनी उंगली से मिथ्यात्व और निश्चेतना की विभीषिका को छुआ है, मैं विस्मृति और चरम अंधकार के आसनतक जा पहुंची। परंतु मेरे हृदय में परम स्मृति थी, मेरे हृदय से ऐसी पुकार उठी जो तेरे पास तक पहुंच सकती थी : "प्रभो, प्रभो, हर जगह तेरे शत्रु विजयी होते दीखते हैं, मिथ्यात्व जगत् का राजा है; तेरे बिना जीवन मृत्यु है, सतत नरक है; संदेह ने आशा का स्थान हड़प लिया है और विद्रोह ने समर्पण को धकेल दिया, श्रद्धा चुक गयी है, कृतज्ञता का जन्मतक नहीं हुआ; अंध आवेशों, हत्यारी वृत्तियों और अपराधी दुर्बलता ने तेरे प्रेम के मधुर विधान को ढक दिया और उसका गला घोंट दिया है। प्रभो, क्या तू अपने शत्रुओं को अभिभावी होने देगा, मिथ्यात्व, कुरूपता । और दुःख को जीतने देगा ? प्रभो विजय के लिये आज्ञा दे और विजय हो जायेगी। मैं जानती हूं कि हम अयोग्य हैं, मैं जानती हूं कि जगत् अभीतक तैयार नहीं है। लेकिन तेरी कृपा पर पूर्ण श्रद्धा के साथ मैं तुझे पुकारती हूं और मैं जानती हूं कि तेरी कृपा रक्षा करेगी ।"
इस भांति मेरी प्रार्थना तेरी ओर ऊपर को दौड़ पड़ी; और रसातल की गहराइयों में से मैंने तुझे तेरी चमकती हुई भव्यता में देखा; तू प्रकट हुआ, और मुझसे बोला : “साहस न खो, दृढ़ बन, विश्वास रख – मैं आ रहा हूं।"
वर्ष: १९३७
२३ अकतूबर १९३७
ऑडियो फिलहाल | अनुपलब्ध है |